आज आचार्य नरेंद्र देव की जयंती है। उन्हें पिछली पीढ़ी 1948 में अयोध्या में विधानसभा चुनाव हरवा कर भुला चुकी है और नई पीढ़ी जब गूगल के माध्यम से विकीपीडिया पर सर्च करती है तो बेहद सीमित सूचनाएं प्राप्त होती हैं। गूगल तो आचार्य नरेंद्र देव नाम के डिग्री कॉलेजों और इंटर कॉलेजों से भरा हुआ है। लेकिन अगर आचार्य नरेंद्र देव के बारे में उनके निधन के 68 साल बाद उनका मूल्यांकन करते हुए कुछ कहना हो तो यही कहा जा सकता है कि यकीन नहीं होता कि इतना संघर्षशील, इतना विद्वान, इतना नैतिक व्यक्ति राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर हो सकता है और व्यापक समाज की नज़र में समादृत रह सकता है। उनका जीवन समाज और व्यक्ति दोनों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। आज जब `बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा देने वाले, झूठ बोलने का रिकॉर्ड बनाने वाले और अपराधियों का गैंग जेल में पालकर उनसे विदेश नीति चलाने वाले राजनेताओं का दौर हो, तब तो यही कहा जा सकता है कि आने वाली पीढ़ियां यह यकीन नहीं करेंगी कि राजनीतिक संघर्ष करते हुए कोई ज्ञान की इतनी उच्चस्तरीय साधना कर सकता है। या तो राजनीति कर लो या एकेडमिक्स कर लो, यानी या तो चुनाव जीत लो या पढ़ाई कर लो, दोनों एक साथ नहीं चलेंगे।
`बंटेंगे तो कटेंगे’ के दौर में आचार्य नरेंद्र देव के विचार ज़्यादा अहम
- विचार
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- 29 Mar, 2025

आचार्य नरेंद्र देव का जन्म 31 अक्टूबर 1889 को यूपी के सीतापुर में हुआ था। भारत के प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार एवं शिक्षाविद थे। जानिए, आज के दौर में आचार्य नरेंद्र देव के विचार कितने प्रासंगिक।
जिस तरह तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखते समय आरंभ में अपने कवि होने से इंकार किया है उसी तरह नरेंद्र देव ने भी अपने भीतर नेतृत्व का गुण होने से इंकार किया है। वे लिखते हैः-
नेता का कोई गुण मुझमें नहीं है। मेरी बनावट ही कुछ ऐसी है कि मैं न तो नेता बन सकता हूं और न ही अंधभक्त अनुयायी।
अब आप इसी के साथ आचार्य जी के अनन्य पंडित जवाहर लाल नेहरू की उस टिप्पणी को देखिए जो वे अपने बारे में करते हैं:-
नरेंद्र देव, यदि मैं कांग्रेस के आंदोलन में न आता और उसके लिए कई बार जेल की यात्रा न करता तो इन्सान न बनता।
वास्तव में हमारा स्वतंत्रता आंदोलन वह समुद्र मंथन है जिसने भारत की प्राचीन भूमि पर पाए जाने वाले विविध प्रतिभा रत्नों को संवारकर बाहर लाने का काम किया। यहीं पर इतिहासकार टायन्बी का वह सिद्धांत सही साबित होता दिखता है कि किसी राष्ट्र की सांस्कृतिक उन्नति के लिए जरूरी नहीं कि वहां एक अच्छा शासन ही हो। तमाम देशों में समृद्धि के दौर में अच्छी प्रतिभाए नहीं दिखतीं और विपन्नता और संघर्ष के दौर में हीरे की तरह से चमकती हैं। भारत के साथ भी कुछ वैसा ही दिखता है। भारतीयों की जो राजनीति आजादी के आंदोलन के समय थी, आजादी के बाद उसका ह्रास होता गया। आज हम बेहद अनपढ़, अनैतिक और अयोग्य नेताओं द्वारा संचालित हो रहे हैं, यह कहने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। वे किसी मूल्य की स्थापना के बजाय सारे उच्च मानवीय मूल्यों को नष्ट करने मे लगे हैं।
लेखक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं।