आज आचार्य नरेंद्र देव की जयंती है। उन्हें पिछली पीढ़ी 1948 में अयोध्या में विधानसभा चुनाव हरवा कर भुला चुकी है और नई पीढ़ी जब गूगल के माध्यम से विकीपीडिया पर सर्च करती है तो बेहद सीमित सूचनाएं प्राप्त होती हैं। गूगल तो आचार्य नरेंद्र देव नाम के डिग्री कॉलेजों और इंटर कॉलेजों से भरा हुआ है। लेकिन अगर आचार्य नरेंद्र देव के बारे में उनके निधन के 68 साल बाद उनका मूल्यांकन करते हुए कुछ कहना हो तो यही कहा जा सकता है कि यकीन नहीं होता कि इतना संघर्षशील, इतना विद्वान, इतना नैतिक व्यक्ति राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर हो सकता है और व्यापक समाज की नज़र में समादृत रह सकता है। उनका जीवन समाज और व्यक्ति दोनों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। आज जब `बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा देने वाले, झूठ बोलने का रिकॉर्ड बनाने वाले और अपराधियों का गैंग जेल में पालकर उनसे विदेश नीति चलाने वाले राजनेताओं का दौर हो, तब तो यही कहा जा सकता है कि आने वाली पीढ़ियां यह यकीन नहीं करेंगी कि राजनीतिक संघर्ष करते हुए कोई ज्ञान की इतनी उच्चस्तरीय साधना कर सकता है। या तो राजनीति कर लो या एकेडमिक्स कर लो, यानी या तो चुनाव जीत लो या पढ़ाई कर लो, दोनों एक साथ नहीं चलेंगे।