9 दिसंबर को काँग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी का 75वाँ जन्मदिन था। किसान आंदोलन के कारण उन्होंने अपना जन्मदिन मनाने से इनकार कर दिया था। उस दिन सोनिया गाँधी को ट्विटर पर टारगेट किया गया। पूरे दिन ट्विटर पर 'बार डाँसर' ट्रेंड करता रहा। एक महिला के लिए इतना घृणित और अपमानजनक शब्द ट्रेंड कराने वाले ये लोग कौन हैं?
दरअसल, भारत की हिन्दू संस्कृति की रक्षक होने का दंभ भरने वाली दक्षिणपंथी पार्टी के आईटी सेल की यह करतूत है। नारियों को पूजने और सारी धरती को कुटुम्ब बताने वाली भारत की हिन्दू संस्कृति के झंडाबरदार इस हद तक एक महिला का अपमान कर सकते हैं! क्या यही विश्वगुरू भारत की संस्कृति है?
असहमति या विरोधी विचारधारा के प्रति इतनी निर्मम और अपमानजनक भाषा को देखकर हम आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत के अतीत में वर्चस्वशाली संस्कृति की भाषा कितनी अश्लील और अशालीन रही होगी।
इससे समझा जा सकता है कि शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों का अतीतकालीन ब्राह्मणवादी संस्कृति में कितना मान रहा होगा! विरोधी का पैशाचीकरण करने के इस दौर में सोनिया गाँधी के जीवन और संघर्ष पर नजर डालने की ज़रूरत है।
सोनिया का राजनीतिक संघर्ष
1997 में जब देश आजादी की 50वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी कर रहा था, उस समय लग रहा था कि एक शताब्दी से अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। बूढ़े हो रहे सीताराम केसरी पार्टी के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ रहे थे। राजनीति में आने से इनकार कर चुकीं सोनिया गांधी को इन हालातों में कांग्रेस की बागडोर संभालनी पड़ी। 1998 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गाँधी उम्मीद जगाने लगीं। अपनी कमजोर और इटैलियन लहजे की हिंदी बोलने के बावजूद, वे जनमानस को उद्वेलित कर रही थीं।
व्यक्तिगत हमले किए गए
लरजते होठों से जब वे अपनी सास को खोने और विधवा होने का जिक्र करतीं तो सभा में आए बूढ़े-बुजुर्गों और स्त्रियों की आंखें डबडबा जातीं। चुनावी सभाओं में जब भीड़ उमड़ने लगी तो उनके विरोधियों की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक था। इसके बाद सोनिया पर व्यक्तिगत हमले शुरू हो गए। विरोधी उन्हें 'इटली की महारानी' से लेकर विदेशी और हिन्दू विरोधी तक कहने लगे।
बीजेपी के पुराने साथी और शिवसेना के अध्यक्ष बाल ठाकरे ने कहा था, "ऐसा कैसे हो सकता है कि एक तरफ हम गोरी चमड़ी वालों को देश छोड़ने के लिए कहें और दूसरी गोरी चमड़ी का स्वागत करें? हमारे पुरखों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंग्रेजों को निकाल बाहर किया था।"
अर्णब की सोनिया पर टिप्पणी
आजकल बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे 'गोरी चमड़ी वाली' सोनिया गांधी की पार्टी कांग्रेस के समर्थन और सहयोग से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं। इन दिनों रिपब्लिक भारत के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी शिव सेना को सोनिया सेना कहते हैं। सोनिया गांधी को ईसाई धर्म से जोड़कर अर्णब गोस्वामी कई दफा अमर्यादित टिप्पणियाँ कर चुके हैं।
कांग्रेस की विधवा जैसी अपमानजनक टिप्पणियाँ करने वाले नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री हैं। लेकिन सोनिया गांधी ने हमेशा ही खामोशी से व्यक्तिगत हमलों और आलोचनाओं का सामना किया है।
नौकरी करते थे राजीव गाँधी
सोनिया गाँधी एक ऐसी महिला हैं जिसने प्यार की खातिर अपना घर-द्वार, देश हमेशा के लिए छोड़ दिया। भारत के सबसे कामयाब राजनीतिक परिवार की बहू होने के बावजूद सोनिया ने अपने पति राजीव गांधी को राजनीति से दूर रखने की कोशिश की। राजीव गाँधी नेहरू खानदान के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने बाकायदा कोई नौकरी की है। पढ़ाई के दौरान भी वे काम करके अपना खर्चा निकालते थे। मशीनों से प्यार करने वाले और लंबी उड़ान भरने के शौकीन राजीव गांधी ने भारत आकर इंडियन एयरलाइंस में बतौर पायलट अपना करियर शुरू किया।
संजय गांधी के राजनीति में हावी होने के बाद राजीव और सोनिया ने खुद को अपने परिवार तक महदूद कर लिया। आपातकाल (1975-1977) के दौरान राजीव गांधी, सोनिया और बच्चों को लेकर इटली चले गए थे। इस वजह से राजीव और सोनिया की आलोचना भी हुई थी। लेकिन संजय गांधी की मृत्यु के बाद सास इंदिरा गांधी और अपने परिवार को सोनिया ने बड़े जतन से संभाला।
वरुण की देखभाल की
कहा जाता है कि जब संजय गाँधी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत हुई, उस वक्त संजय-मेनका के पुत्र वरुण महज सौ दिन के थे। उस वक्त वरुण की देखभाल सोनिया ने ही की थी। संजय को बहुत चाहने वालीं इंदिरा उनकी मृत्यु के बाद टूट गई थीं। मेनका ने बगावत कर दी थी। मीडिया को बुलाकर रात करीब बारह बजे मेनका इंदिरा गांधी पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री आवास से निकलकर अपने मायके चली गईं थीं।
इंदिरा को संभाला
यह इंदिरा गांधी के लिए बहुत मुश्किल भरा समय था। तब सोनिया ने बहुत संजीदगी से परिवार को संभाला था। लेकिन मेनका हमेशा सोनिया पर सास इंदिरा को अपने पक्ष में करने का आरोप लगाती रही हैं। हालांकि एक सच यह भी है कि मेनका और संजय की प्रेम कहानी को विवाह की दहलीज पर लाने का श्रेय भी सोनिया को ही जाता है। इस शादी के खिलाफ इंदिरा को मनाने वाली सोनिया ही थीं।
इटली के ओरबसेनो शहर में 9 दिसंबर 1946 को जन्मीं सोनिया एंटोनियो माइनो के पिता एक साधारण भवन निर्माता थे। मुसोलिनी के प्रशंसक और रूढ़िवादी कैथोलिक स्टीफेनो की इजाजत के बगैर लड़कियाँ बाहर नहीं जा सकती थीं। लेकिन सोनिया में ऐसा कुछ था कि पिता ने उन्हें अंग्रेजी पढ़ने के लिए कैंब्रिज (इंग्लैंड) भेज दिया।
18 साल की सोनिया पहली मुलाकात में ही राजीव के प्यार में पड़ गईं। राजीव से बात करने के लिए उन्होंने ज्यादा मेहनत और शिद्दत से अंग्रेजी सीखी। तब सोनिया को भनक भी नहीं थी कि राजीव की मां किसी देश की प्रधानमंत्री हैं। सामान्य से खर्चे पर रहने वाले राजीव छुट्टियों में काम भी करते थे।
राजीव ने आइसक्रीम बेची, फूल चुने, ट्रक में सामान लादा और रात की पाली में बेकरी में काम करके पैसा कमाया। राजीव ने स्वीकारा भी था कि यह सब, वे भारत में कभी नहीं कर सकते थे। लेकिन कैंब्रिज में उनके पास एक कार और एक बढ़िया कैमरा भी था। अक्सर वीकेंड पर इंग्लैंड की सुनहरी वादियों में सोनिया और कैमरा राजीव के साथ होते थे।
25 फरवरी 1956 को कश्मीरी ब्राह्मण रीति-रिवाज से राजीव और सोनिया का विवाह हुआ। पहले स्टीफेनो को लगता था कि सोनिया सुदूर भारत के डर से राजीव को भूल जाएंगीं। लेकिन सोनिया को राजीव और भारत ऐसे भाए कि उन्होंने इटली को भुला दिया।
इंदिरा और राजीव की हत्या
उपन्यास के प्रेमी पात्रों जैसा सोनिया और राजीव का प्रेम था। लेकिन सोनिया का जीवन अनहोनियों से भरा रहा है। प्रधानमंत्री सास इंदिरा गाँधी की गोलियों से छलनी देह को अपनी गोद में रखकर हॉस्पिटल ले जाने वालीं सोनिया ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन उनके पति की भी हत्या कर दी जाएगी। 21 मई 1991 को श्रीपैरंबदूर में आतंकवादी हमले में राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई। इसके बाद सोनिया राहुल और प्रियंका के लिए बहुत चिंतित हो गईं। इसीलिए वे राजनीति से बहुत दूर जाना चाहती थीं। लंबे समय तक वे इससे दूर रहीं।
मनमोहन को सौंप दी कुर्सी
काँग्रेस पार्टी बिना गाँधी परिवार के बिखरने लगी। काँग्रेस के बड़े नेताओं ने पार्टी की खातिर उनसे राजनीति में आने की गुहार लगाई। पार्टी अध्यक्ष के रूप में शुरूआती असफलता के बाद 2004 में सोनिया गाँधी ने काँग्रेस को सत्ता में पहुँचाया। लेकिन अपनी 'अंतरआत्मा' की आवाज सुनकर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया। हालांकि इसके पीछे राजनीतिक विरोधियों की ओछी टिप्पणियाँ और परिवार की चिंता ज्यादा थी। ऐसे में उन्होंने आर्थिक सुधारों के नायक रहे, सिख समुदाय से आने वाले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया।
भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी यूपीए सरकार की छवि खराब हुई और 2014 के लोकसभा चुनाव में काँग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। आज सोनिया गाँधी अस्वस्थ और थकी हुई हैं। अपमानजनक भाषा में ओछी टिप्पणियाँ सोनिया गाँधी को ज़रूर पीड़ा पहुँचाती होंगी। क्या आज की राजनीति में असहमति और विरोध के लिए कोई जगह नहीं बची है?
अपनी राय बतायें