अरविंद केजरीवाल ने जब राजनीति में धरनों के रास्ते एंट्री मारी थी तो उनकी छवि धरना मास्टर की ही बनी हुई थी। यहां तक कि सीएम बनने के बाद भी वह रेलवे भवन पर सारी रात धरने पर बैठकर यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें धरनों से कोई अलग नहीं कर सकता। वह नई तरह की राजनीति की बात कर रहे थे तो यह स्वाभाविक रूप से मान लिया गया था कि केजरीवाल को धरनों से अलग नहीं किया जा सकता। इसीलिए बीजेपी को उन्हें ‘अराजक’ साबित करने में ज्यादा हिचक नहीं हुई थी।
केजरीवाल अब भी धरनों से जुड़े हुए हैं। मगर अब धरनों से वह अपनी राजनीति चलाते हैं। कभी उनमें शामिल होकर और कभी शामिल न होकर। अब एक बार फिर वह एक धरने में शामिल हुए हैं। कुछ दिन पहले वह दिल्ली-हरियाणा सीमा पर सिंघु बॉर्डर पर बैठे किसानों के धरने में पहुंचे।
हितैषी साबित करने की कोशिश
केजरीवाल डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को भी अपने साथ ले गए और वहां जाकर जताया कि किस तरह उन्होंने किसानों के इस आंदोलन को मजबूत किया है। उन्होंने किसानों के इस आंदोलन को सफल बनाने का पूरा श्रेय लेते हुए कहा कि केंद्र सरकार तो चाहती थी कि हम दिल्ली के 9 स्टेडियमों को जेल बना दें ताकि बाहर से दिल्ली आकर धरना देने की कोशिश करने वाले किसानों को इन जेलों में डाला जा सके। हमने यह आदेश नहीं माना जिसका नतीजा यह हुआ कि किसान बॉर्डर पर ही धरने पर बैठ गए और अब तक बैठे हुए हैं।
नजरबंदी का ड्रामा!
अपनी बात को और पुख्ता करने के लिए केजरीवाल ने घर आकर यह एलान भी कर दिया कि केंद्र सरकार ने उन्हें घर पर नजरबंद कर दिया है ताकि वह किसानों का समर्थन करने के लिए बाहर नहीं जा सकें। हालांकि केजरीवाल धरने में शामिल होने वाले दिन भी रात साढ़े दस बजे घर लौटे और अगले दिन उन्होंने घर से निकलने की कोशिश ही नहीं की।
यह सच है कि उनके घर के बाहर पुलिस तैनात थी और वह कहते रहे कि उन्हें घर से नहीं निकलने दिया जा रहा। मगर, एक बार भी उन्होंने न तो घर से निकलने की कोशिश की और न यह नौबत आई कि पुलिस रोके। अगर घर से निकल आते और पुलिस नहीं रोकती तो फिर घर पर नजरबंदी का यह ड्रामा अपने आप झूठा साबित हो जाता।
बहरहाल, केजरीवाल किसानों के समर्थन में धरने में शामिल हुए और अपने आपको किसानों का सबसे बड़ा हितैषी भी बता आए लेकिन इस सवाल का जवाब केजरीवाल एंड कंपनी ने कभी नहीं दिया कि आखिर वह शाहीन बाग के धरने में शामिल क्यों नहीं हुए थे?
आखिर उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून का खुलकर विरोध क्यों नहीं किया था? दिल्ली में मुसलिम वोटर उनकी जेब में हैं तो भी वह उनके समर्थन में आगे क्यों नहीं आए?
पंजाब चुनाव पर है नजर
इन सवालों का जवाब जानने से पहले आइए पहले यह जान लेते हैं कि केजरीवाल सिंघू बॉर्डर क्यों गए और क्यों किसानों का खुला समर्थन करने और उनका हितैषी बनने का ढोल पीटकर आए। दरअसल, सिंघू बॉर्डर पर आए किसानों में से 80 फीसदी पंजाब से हैं। पंजाब में 2022 के शुरू में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। दिल्ली के बाद अगर किसी राज्य में आम आदमी पार्टी को राजनीतिक रूप से स्वीकार किया गया है तो वह पंजाब ही है।
केजरीवाल अब पंजाब चुनावों पर नजर गढ़ाकर राजनीति कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह और अकाली दल दोनों पर आरोपों की झड़ी भी लगाई है ताकि वह अपने आपको दूध का धुला साबित कर सकें।
वह सिंघू बॉर्डर गए लेकिन गाजीपुर बॉर्डर या टिकरी बॉर्डर नहीं गए क्योंकि हरियाणा में अभी चुनाव नहीं हैं और यूपी उनकी पहुंच से बाहर है।
शाहीन बाग क्यों नहीं गए?
अब आते हैं इस सवाल पर कि वह शाहीन बाग क्यों नहीं गए। दरअसल, इसकी एक ही वजह थी और वे थे दिल्ली के विधानसभा चुनाव। पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में केजरीवाल को दिल्ली के मुसलमानों ने समर्थन नहीं दिया था और इसीलिए कांग्रेस 7 में से 5 सीटों पर नंबर दो पर आ गई थी और केजरीवाल की पार्टी नीचे खिसक गई थी।
तब केजरीवाल ने कहा था कि मुसलिम समुदाय ने हमसे वादा किया है कि जब दिल्ली की बारी आएगी तो हम आपके साथ होंगे। यह सभी जानते हैं कि सीएए के खिलाफ दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में चल रहा आंदोलन मुसलिम बाहुल्य ही था। इसके बावजूद केजरीवाल एक बार भी शाहीन बाग नहीं गए। वह खुद भी नहीं गए और अपनी पार्टी के ज्यादातर नेताओं को भी उससे दूर रखा। डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया सिर्फ एक बार कुछ देर के लिए गए और ओखला के विधायक अमानतुल्ला खान ने भी उधर का रुख नहीं किया। जानते हैं क्यों?
केजरीवाल की रणनीति
जिस दौरान दिसंबर में सीएए विरोधी आंदोलन शुरू हुआ, उसी दौरान दिल्ली के विधानसभा चुनाव भी थे। बीजेपी ने यह तय कर रखा था कि वह हिंदुवाद और राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव लड़ेगी। इसीलिए अमित शाह, अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा ने सीएए को मुद्दा बनाकर चुनाव प्रचार को गर्म किया। हालांकि इस कोशिश में वे अपनी सीमाएं भी लांघ गए और चुनाव आयोग को आपत्ति भी करनी पड़ी लेकिन अरविंद केजरीवाल इस जाल में नहीं फंसे या यह कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी सीमाओं को समझ लिया। इसीलिए वह एक बार भी शाहीन बाग नहीं गए और धरना मास्टर होते हुए भी इस धरने से दूरी बना ली।
अगर केजरीवाल शाहीन बाग के धरने में शामिल हो जाते तो फिर यह साबित हो जाता कि वह मुसलिम वोटरों के ज्यादा हमदर्द हैं और उनकी मांग का समर्थन कर रहे हैं।
बीजेपी के जाल में नहीं फंसे
बीजेपी का यही जाल था कि चुनाव को हिंदू-मुसलिम और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़ा जाए। इसीलिए केजरीवाल दिल्ली में बिजली, पानी, सड़क और मुफ्त की सुविधाओं के मुद्दों पर ही जमे रहे। उन्होंने चुनाव के मुद्दे बदलने ही नहीं दिए। चूंकि बीजेपी जरूरत से ज्यादा आक्रामक हो गई थी तो जनता को वह भी पसंद नहीं आया और केजरीवाल धरने से दूर रहकर चुनाव जीत गए।
अनुच्छेद-370 हटाने का समर्थन
केजरीवाल ने हिंदुवाद और राष्ट्रवाद के मुद्दों में दखलंदाजी न करने की जो नीयत दिखाई, वह इस बात से भी साबित होती है कि जब जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाने का फैसला किया गया तो केजरीवाल ने उसका समर्थन किया। हालांकि संसद में नागरिकता कानून के विरोध में आम आदमी पार्टी ने वोट दिया लेकिन जब पीएम मोदी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई तो आम आदमी पार्टी ने उससे दूरी बनाए रखी।
जब पाकिस्तान के एक मंत्री ने सीएए को लेकर पीएम मोदी पर हमला बोला तो पीएम मोदी के कट्टर विरोधी होने के बावजूद केजरीवाल ने मोदी का जबरदस्त बचाव किया।
कहने का मतलब यह है कि केजरीवाल धरनों में भी राजनीति खोज लेते हैं। इसीलिए धरनों के रास्ते राजनीति में पहुंचने के बाद अब वह धरनों को राजनीति का जरिया बनाए हुए हैं। किसान धरने में अपने राजनीतिक लाभ के लिए शामिल हो जाते हैं और शाहीन बाग धरने में शामिल नहीं होते क्योंकि वह राजनीतिक नुकसान का सौदा नजर आ रहा था।
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