मराठा शासक छत्रपति शिवाजी का नाम एक बार फिर चर्चा में है। 'छत्रपति शिवाजी' के नाम से जुड़ा ताज़ा विवाद छिड़ा एक ऐसी पुस्तक को लेकर जिसका शीर्षक है 'आज के शिवाजी- नरेंद्र मोदी'। इस पुस्तक के लेखक जय भगवान गोयल का कहना है, ‘जिस तरह शिवाजी महाराज मुग़लकाल में अपने स्वाभिमान को बनाए रखते हुए काम करते थे, 70 साल में पहली बार ऐसा कोई प्रधानमंत्री आया है जो उसी तरह काम कर रहा है और इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इस किताब के बारे में सोचा।’
क्या शिवाजी की तुलना नरेंद्र मोदी से करना तर्क सांगत है? क्या एक शासक के रूप में शिवाजी की नीयत और नीतियाँ वैसी ही थीं जैसी मोदी शासन में दिखाई दे रही हैं? धर्म अथवा जाति से संबंधित अनेक विवादित फ़ैसलों को लेकर आज जिस तरह देश में जगह-जगह बेचैनी व विरोध-प्रदर्शन दिखाई दे रहे हैं, क्या शिवाजी के समय भी यही स्थिति थी? क्या शिवाजी की भी मुसलमानों के प्रति धारणा ऐसी ही थी जैसी आज के सत्ताधारियों की है?
छत्रपति शिवाजी महाराज धर्मनिरपेक्ष शासक थे। वे सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करते थे। शिवाजी के दादा मालोजी जो कि अहमदनगर रियासत में एक सुप्रतिष्ठित फ़ौजी कमांडर थे, उन्हें शादी के दस वर्षों तक कोई संतान नहीं हुई थी। जबकि उनके छोटे भाई के घर आठ संतानें थीं। मालोजी ने पुत्र प्राप्ति के लिए तीर्थ, व्रत, पूजा-पाठ आदि सब कुछ कर डाला लेकिन उन्हें संतान की प्रप्ति नहीं हुई। अंत में किसी शुभचिन्तक की सलाह मानकर वह अहमदनगर क़िले के बाहर स्थित सूफ़ी फ़क़ीर शाह शरफ़ की मज़ार पर गए और संतान की मन्नत व दुआयें माँगीं। उसी वर्ष मालोजी के घर एक पुत्र पैदा हुआ। अगले ही वर्ष दूसरे पुत्र ने भी जन्म ले लिया। मालोजी को इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि उन्हें शाह शरफ़ बाबा के आशीर्वाद से ही दोनों पुत्र प्राप्त हुए हैं। उन्होंने अपने बड़े बेटे का नाम शाहजी और छोटे बेटे का नाम शरफ़ जी रख दिया। छत्रपति शिवाजी शाहजी की संतान थे।
शिवाजी महाराज क़ुरान शरीफ़, मसजिदों, दरगाहों तथा औरतों का बहुत आदर करते थे। एक बार शिवाजी के एक हिन्दू सेनापति ने सूरत शहर को लूटा तथा वहाँ के मुग़ल हाकिम की सुंदर बेटी को क़ैद कर उनके दरबार में लाया। शिवाजी के समक्ष उस सुंदर कन्या को पेश करते हुए सेनापति बोला कि- ‘महाराज मैं आपके लिए यह नायाब तोहफ़ा लाया हूँ।’ शिवाजी अपने कमांडर की इस हरकत को देखकर ग़ुस्से से आग बबूला हो गए तथा अपने उस हिन्दू सेनापति को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा- ‘तुमने न सिर्फ़ अपने मज़हब की तौहीन की बल्कि अपने महाराज के माथे पर कलंक का टीका भी लगाया।’ फिर क़ैद करके लाई गई मुग़ल हाकिम की सुंदर बेटी की ओर देखकर शिवाजी बोले- ‘बेटी, तुम कितनी ख़ूबसूरत हो। काश! मेरी माँ भी तुम्हारी तरह ख़ूबसूरत होती तो मैं भी तुम्हारे जैसा ही ख़ूबसूरत होता।’ उसके बाद शिवाजी ने ढेर सारे तोहफ़े देकर उस मुसलमान शहज़ादी को अपनी एक फ़ौजी टुकड़ी की सुरक्षा में उसके माता-पिता के पास आदर सहित वापस भेज दिया। शिवाजी ने सूरत के मुग़ल हाकिम से माफ़ी भी माँगी।
शिवाजी की फ़ौज को उनका आदेश था कि लड़ाई के दौरान किसी भी मसजिद को कोई नुक़सान नहीं पहुँचे और यदि कहीं कोई क़ुरान शरीफ़ मिल जाए तो उसे आदर सहित मेरे पास लाया जाए। इस प्रकार प्राप्त किये गये क़ुरान शरीफ़ को शिवाजी प्राय: मुसलमान क़ाज़ियों को तोहफ़े के रूप में पेश कर दिया करते थे।
हैदराबाद (सिन्ध) से आकर केलसी में बसे बाबा याक़ूत एक बड़े सूफ़ी सन्त थे। उनका मानना था कि ईश्वर, अल्लाह एक ही हैं तथा कुल इंसान आपस में भाई-भाई हैं। शिवाजी बाबा याक़ूत शहरवर्दी के इतने बड़े मुरीद थे कि उन्होंने बाबा को 653 एकड़ ज़मीन जागीर के रूप में अता की तथा वहाँ एक विशाल ख़ानक़ाह का निर्माण करवाया। शिवाजी की मृत्यु के एक वर्ष बाद ही बाबा याक़ूत का भी देहांत हो गया था। जब भी शिवाजी किसी युद्ध के लिए जाते थे तो अपनी विजय के लिए बाबा याक़ूत से दुआएँ व मुरादें माँगकर जाते थे। अपने फ़रमान में शिवाजी ने लिखा भी है–‘हज़रत बाबा याक़ूत बहवत थोरू बे’ यानी बाबा याक़ूत बहुत बड़े सूफ़ी-सन्त हैं। एक अन्य मुसलिम सूफ़ी संत मौनी बुआ जो कि पाड़ गाँव में रहते थे, उन पर भी शिवाजी को अत्यधिक विश्वास था तथा वे मौनी बुआ के बहुत बड़े भक्त थे। युद्ध के लिए जब शिवाजी कर्नाटक मोर्चे पर जाने लगे तो उन्होंने मोर्चे पर जाने से पहले मौनी बुआ के पास जाकर उनका आशीर्वाद लिया।
शिवाजी के सबसे विश्वासपात्र कौन?
इतिहास में दर्ज है कि शिवाजी के सबसे विश्वासपात्र सहयोगी और उनके निजी सचिव का नाम मुल्ला हैदर था। शिवाजी के सारे गुप्त दस्तावेज़ मुल्ला हैदर की सुपुर्दगी में ही रहा करते थे तथा शिवाजी का सारा पत्र व्यवहार भी उन्हीं के ज़िम्मे था। मुल्ला हैदर शिवाजी की मृत्यु होने तक उन्हीं के साथ रहे। शिवाजी के अफ़सरों और कमांडरों में बहुत सारे लोग मुसलमान थे। इसके बावजूद कुछ अंग्रेज़ व मराठा इतिहासकारों ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि शिवाजी का लक्ष्य हिन्दू साम्राज्य स्थापित करना था। परंतु ‘पूना महज़र’ जिसमें शिवाजी के दरबार की कार्रवाइयाँ दर्ज हैं उसमें सन 1657 में शिवाजी द्वारा अफ़सरों और जजों की नियुक्ति किए जाने का भी उल्लेख किया गया है। शिवाजी की सरकार में जिन मुसलिम क़ाज़ियों और नायब क़ाज़ियों को नियुक्त किया गया था उनके नामों का ज़िक्र भी ‘पूना महज़र’ में मिलता है। जब शिवाजी के दरबार में मुसलिम प्रजा के मुक़दमे सुनवाई के लिए आते थे तो शिवाजी मुसलिम क़ाज़ियों से सलाह लेने के बाद ही फ़ैसला देते थे।
शिवाजी के मशहूर नेवल कमांडरों में दौलत ख़ान और दरिया ख़ान सहरंग नाम के दो मुसलमान कमाण्डर प्रमुख थे।
जब यह लोग पदम् दुर्ग की रक्षा में व्यस्त थे उसी समय एक मुसलमान सुल्तान, सिद्दी की फ़ौज ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। शिवाजी ने अपने एक ब्राह्मण सूबेदार जिवाजी विनायक को यह निर्देश दिया कि दौलत ख़ान और दरिया ख़ान को रसद और रुपये-पैसे फ़ौरन रवाना कर दिए जाएँ। परन्तु सूबेदार विनायक ने जानबूझ कर समय पर यह कुमुक (सहायता) नहीं भेजी। इस बात से नाराज़ होकर शिवाजी ने विनायक को उसके पद से हटाने तथा उसे क़ैद में डालने का हुक्म दिया। अपने आदेश में शिवाजी ने लिखा कि- ‘तुम समझते हो कि तुम ब्राह्मण हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारी दग़ाबाज़ी के लिए माफ़ कर दूँगा? तुम ब्राह्मण होते हुए भी कितने दग़ाबाज़ हो कि तुमने सिद्दी से रिश्वत ले ली। लेकिन मेरे मुसलमान नेवल कमांडर कितने वफ़ादार निकले कि अपनी जान पर खेलकर भी एक मुसलमान सुल्तान के विरुद्ध उन्होंने मेरे लिए बहादुराना लड़ाई लड़ी।’
शिवाजी संप्रदाय या धर्म के आधार पर कभी भी पक्षपात नहीं करते थे। शिवाजी सही मायने में एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष तथा राजधर्म निभाने वाले शासक थे। लिहाज़ा शिवाजी महाराज की तुलना किए जाने से पहले उस शख्स की नीयत और नीतियों की तुलना भी ज़रूरी है।
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