हालिया टीआरपी घोटाले के मद्देनज़र ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च कौंसिल यानी बार्क ने दो से तीन महीने तक के लिए न्यूज़ चैनलों की टीआरपी न देने का एलान किया है। उसका कहना है कि वह इस दौरान अपनी रेटिंग प्रणाली में सुधार करेगा। बार्क की घोषणा से यही लगता है कि वह टीआरपी मापने के लिए लगाए जाने वाले मीटर, जिन्हें वह बैरोमीटर कहता है, के दुरुपयोग की गुंज़ाइश कम या ख़त्म करने का इरादा रखता है। अगर ऐसा है तो बार्क उन बड़े सुधारों से बचने की कोशिश कर रहा है जिसकी सख़्त ज़रूरत है।
यह सही है कि बैरोमीटर की गोपनीयता भंग होने और उसके ज़रिए टीआरपी में छेड़छाड़ की समस्या बहुत गंभीर है। रिपब्लिक टीवी और दो मराठी चैनलों द्वारा यही किए जाने के आरोप हैं और इस वज़ह से टीआरपी की विश्वसनीयता पर ज़बर्दस्त धक्का लगा है। फिर यह पहली बार नहीं हुआ है। इसकी शिकायतें लगातार आती रही हैं, मगर बार्क इस दिशा में कुछ ठोस कर नहीं पाया है।
वास्तव में बार्क के पहले जब टैम इंडिया नामक मार्केट रिसर्च एजेंसी टेलीविज़न रेटिंग के आँकड़े देती थी तब भी यही समस्या थी और उस पर से विश्वास उठने का एक बड़ा कारण भी। उसने तो बार्क के मुक़ाबले बहुत कम पीपल्स मीटर लगाए थे और कुछ चुनिंदा शहरों में ही लगाए थे। उसके 10-12 हज़ार मीटरों की तुलना में बार्क ने 44 हज़ार मीटर लगाए हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि टीआरपी में छेड़छाड़ का ख़तरा और भी बढ़ गया है। इसीलिए दावे किए जा रहे हैं कि जो मुंबई में रिपब्लिक टीवी कर रहा था वह पूरे देश भर में हो रहा होगा और इस खेल में और भी चैनल शामिल हो सकते हैं।
ध्यान देने वाली बात है कि बार्क यह दावा करता है कि उसकी प्रणाली चाक-चौबंद है, मगर उसे ज़मीनी स्तर पर हो रहे इस भ्रष्टाचार के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था और अगर हंसा रिसर्च ने शिकायत न की होती तो यह सिलसिला चलता रहता। अभी भी बार्क जो सुधार की बात कर रहा है वह इसीलिए कि उसके आँकड़ों पर सवाल खड़े हो गए हैं और अब उसके सामने इस समस्या का समाधान ढूँढने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह गया है।
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि बार्क अभी भी गंभीर नहीं दिख रहा है और ऐसा लगता है कि उसने यह क़दम मुख्य रूप से विवादों को शांत करने के लिए उठाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह व्यापक सुधारों की दिशा में क़दम उठाने की बात करता।
बार्क में कई स्तरों पर बदलाव की ज़रूरत है। इसी साल अप्रैल में भारतीय दूरसंचार प्राधिकरण यानी ट्राई ने लगभग डेढ़ साल के विचार-विमर्श के बाद कई सिफ़ारिशें की थीं, मगर छह महीने में बार्क ने उन पर किसी तरह से अमल की कोई मंशा ज़ाहिर नहीं की है। इसके विपरीत उसके रवैये से यही लगता है कि वह अपनी व्यवस्था को अचूक मानता है और उसमें किसी तरह के बदलाव की ज़रूरत को महसूस नहीं करता।
ट्राई की सिफ़ारिशें अव्यावहारिक
बार्क के हवाले से जो प्रतिक्रियाएँ आई थीं उनके मुताबिक़ ट्राई की सिफ़ारिशें अव्यावहारिक हैं, वे बार्क की स्वायत्तता में दखल देने वाली हैं और वे निहित स्वार्थों से प्रभावित हैं। उसके मुताबिक़ बार्क में कोई कमी नहीं है, वह बिल्कुल ठीक चल रहा है। ज़ाहिर है कि जब इस नकारात्मक दृष्टि से सिफ़ारिशों को देखा जाएगा तो परिवर्तन क्या करेगा...ख़ाक़।
अब ज़रा ट्राई की सिफ़ारिशों पर ग़ौर कर लिया जाए, क्योंकि उससे अंदाज़ा मिल जाता है कि बार्क में किस स्तर पर गड़बड़ियाँ हैं और कैसे सुधारों की बात वह कर रहा है। ट्राई ने सबसे महत्वपूर्ण सिफ़ारिश तो बार्क के गवर्नेंस ढाँचे में बदलाव की की थी, ताकि विश्वसनीयता, पारदर्शिता बढ़ाई जा सके और हिस्सेदारों का विश्वास बढ़े।
इस परिवर्तन में उसने बार्क के बोर्ड को भी शामिल किया था और कहा था कि उसमें कम से कम पचास फ़ीसदी सदस्य स्वतंत्र होने चाहिए, क्योंकि जिन संस्थाओं से मिलकर बार्क बना है, उनके प्रतिनिधियों के निजी हित टकरा सकते हैं। यही नहीं, इंडस्ट्री के संगठनों, एएएआई, आईएसए और आईबीएफ़ की बराबर की नुमाइंदगी होनी चाहिए और सबका कार्यकाल दो साल से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।
इसी तरह बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यकाल भी दो साल होना चाहिए और किसी के लिए भी दोबारा सदस्यता ग्रहण करने या अध्यक्ष बनने के बीच चार साल का अंतराल होना चाहिए। ज़ाहिर है कि इस तरह की शर्तों या सुधारों से उन लोगों का वर्चस्व ख़त्म होगा जो अभी काबिज़ हैं इसलिए उन्हें यह सिफ़ारिश पसंद नहीं आई और उन्होंने उसे ठंडे बस्ते में रख दिया।
ट्राई ने रिसर्च की मेथडॉलॉजी, डाटा को इकट्ठे करने और फिर उसका विश्लेषण करने को बेहतर बनाने के लिए भी कई तरह के सुझाव दिए हैं। उसकी सिफ़ारिश है कि डाटा इकट्ठा करने के लिए कई एजेंसियों की मदद ली जानी चाहिए और इसी तरह डाटा का विश्लेषण किया जाना चाहिए।
उसका एक महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि सैंपल साइज़ को तुरंत बढ़ाकर 60000 और फिर एक लाख किया जाना चाहिए। एक सौ तीस करोड़ की आबादी के मद्देनज़र यह सुझाव उचित लगता है मगर बार्क ख़र्च का रोना रोकर इसे खारिज़ कर रहा है। इसमें संदेह नहीं है कि दोगुने से भी ज़्यादा बैरोमीटर लगाना एक ख़र्चीला काम है, मगर बार्क को इसके लिए संसाधन जुटाना चाहिए।
लेकिन ऐसा लगता है कि बार्क का बोर्ड आत्मसंतुष्ट होकर बैठा हुआ है और वह केवल दिखावटी सुधारों में दिलचस्पी रखता है। उसका नेतृत्व अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बड़े सुधारों के ख़िलाफ़ खड़ा है। मार्केट रिसर्च एक लगातार विकसित होती प्रणाली है। नित नई टेक्नोलॉजी उसे नई धार और दिशा प्रदान कर रही है, मगर बार्क उसके साथ चलने से हिचक रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि ऐसे टीआरपी घोटाले आगे भी होते रहेंगे।
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