पिछले डेढ़-दो दशकों से पत्रकारों और आम अवाम के बीच टीआरपी एक अति-निंदनीय शब्द बना हुआ है। हर मंच से, हर सभा-सेमिनार में और आम बातचीत में जब भी न्यूज़ चैनलों का ज़िक्र होता है, टीआरपी एक खलनायक की तरह उपस्थित हो जाती है। टीआरपी को एक दैत्य की तरह देखा जाता है, उसे टेलीविज़न की हर बुराई के लिए कोसा जाता है और कामना की जाती है कि इसका वध हो जाए तो दुनिया सुखद हो जाएगी।