आर्थिक उदारवाद की आँधी, बाज़ार का दबाव और प्रभाव ये सब मिलकर मीडिया का चरित्र बदल ही रहे थे मगर इसका सीधा असर पत्रकारिता पर भी पड़ रहा था। यानी मीडिया इंडस्ट्री में जो नए समीकरण बन रहे थे वे एक ओर मीडिया का विस्तार कर रहे थे और दूसरी तरफ़ पत्रकारिता को हाशिए पर भी धकेल रहे थे। मीडिया उद्योग पत्रकारिता का मुखौटा पहनकर धंधेबाज़ी कर रहा था। आइए अब यह समझते हैं कि वह ऐसा कैसे कर रहा था।
टीआरपी चैनलों के लिए ख़ुदा तो नहीं मगर ख़ुदा से कम भी नहीं है। हम इस बात को बख़ूबी समझ चुके हैं और यह भी कि न्यूज़ चैनल टीआरपी के लिए कुछ भी कर सकते हैं, किसी भी हद तक जा सकते हैं। कोई भी झूठ बोल सकते हैं, कोई भी ड्रामा रच सकते हैं। लेकिन यह जानने की ज़रूरत है कि यह स्थिति क्यों और कैसे बनी।
सबसे पहले तो हर हफ़्ते आने वाली टीआरपी ने न्यूज़ चैनलों को ऐसी प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया जिसमें उन्हें चौबीस घंटे और 365 दिन केवल और केवल टीआरपी बढ़ाने के बारे में सोचना पड़े। टीआरपी मार्केटिंग और सेल्स का मुख्य शस्त्र बन गई। यानी अगर आपके चैनल की टीआरपी अच्छी है तो मार्केट में आप उसे अच्छे से पोजिशन कर सकते हैं और अपने प्रोडक्ट यानी बुलेटिन या कार्यक्रमों को अच्छी क़ीमत पर बेच सकते हैं। इसी तरह अच्छी टीआरपी के बल पर सेल्स टीम बेहतर बिज़नेस ला सकती है।
इस तरह मार्केटिंग और सेल्स की टीमें संपादकीय टीम से अच्छी टीआरपी की डिमांड करने लगीं, उसके लिए उस पर दबाव बनाने लगीं। यही नहीं, वे दूसरे चैनलों के आँकड़े दिखाकर उसे बताने लगीं कि वे क्या करें और क्या न करें। यानी संपादकीय निर्णय संपादकीय विभाग के हाथों से फिसलने लगे। संपादकीय टीम मार्केटिंग और सेल्स टीम की मुखापेक्षी हो गई, क्योंकि स्वामित्व भी धंधा लेने वालों की ज़रूरियात को तरज़ीह देता है।
दूसरी तरफ़ अच्छी टीआरपी के लिए ज़रूरी था कि चैनल हर जगह, हर केबल नेटवर्क, डीटीएच पर आसानी से उपलब्ध हो यानी दर्शकों के बीच उसकी रीच या पहुँच अच्छी हो। यह बहुत ख़र्चीला काम है। न्यूज़ चैनलों का चालीस-फ़ीसदी बजट केवल डिस्ट्रीब्यूशन पर ख़र्च होता है। ज़ाहिर है कि कंपनी इतना ख़र्च करने के बाद संपादकीय टीम से उम्मीद करने लगी कि वह अच्छी टीआरपी लाए।
अब देखिए कि संपादकीय टीम पर हर तरफ़ से टीआरपी बढ़ाने का दबाव पड़ रहा है। ऐसे में जो संपादक अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकता उसकी छुट्टी तय है। इसी तरह से जो वरिष्ठ पत्रकार विभिन्न पदों पर बैठे हैं, उनकी भी नौकरियाँ टीआरपी पर ही जाकर टिक गईं।
अब मरता क्या न करता। सबके सब इसी जुगत में रहने लगे कि अगले हफ़्ते टीआरपी कैसे बेहतर हो।
इसने न्यूज़ चैनलों में पत्रकारों की योग्यता के नए मानक तय कर दिए। अब अच्छा संपादक वह माना जाने लगा जो टीआरपी के खेल का महारथी हो। यानी इससे कोई मतलब नहीं कि वह अच्छी पत्रकारिता करना जानता है या नहीं और पत्रकारीय मानदंडों पर चैनल को कितना ऊपर उठा सकता है। इसी तरह अच्छा रिपोर्टर वह हो गया जो टीआरपी दिलाने वाली ख़बरें लाता हो, उसके लिए ज़रूरी तिकड़में वगैरह करना-करवाना भी जानता हो।
टीआरपी के लिए गाली-गलौज़ तक!
डेस्क पर भी उन्हीं लोगों की पूछ बढ़ गई जो टीआरपी को केंद्र में रखते हुए ख़बरों के चयन से लेकर उनको बनाने और प्रस्तुत करने में माहिर हों। अच्छा एंकर उसे माना जाने लगा जिसका शो सबसे ज़्यादा देखा जाता हो। बहस वाले शो में चीख-चिल्लाहट, लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज़ यहाँ तक कि मारपीट आवश्यक तत्व बन गए, क्योंकि ऐसी चीज़ों की दर्शक संख्या अधिक होती है।
दूसरी तरफ़ अच्छी और गंभीर पत्रकारिता करने वाले संपादकों और पत्रकारों के बुरे दिन आ गए। चैनलों को वे बोझ लगने लगे और उन्हें ठिकाने लगाया जाने लगा। चूँकि टीआरपी केंद्रित टीवी पत्रकारिता सतही और हवा-हवाई थी, बाइट जर्नलिज्म या एजेंसी की फीड से काम चल जाता था, इसलिए कम पैसे में काम करने वाले युवा ज़्यादा उपयोगी माने जाने लगे। हर स्तर पर उनकी भर्ती होने लगी। एंकरिंग के मामले में भी यही हुआ।
साफ़ है कि टीआरपी का भूत मालिक से लेकर चैनल के चपरासियों तक पर सवार हो गया। हर हफ़्ते आने वाली टीआरपी संपादकीय टीम के सिर पर लटकी तलवार बन चुकी थी। टीआरपी के हिसाब से उसकी साँस ऊपर-नीचे होती रहती है।
ऐसे में पूरे कंटेंट का टीआरपी केंद्रित होना ही था। पहले हर शुक्रवार और फिर बुधवार को आने वाले टीआरपी के आँकड़ों के हिसाब से यह तय किया जाना लगा कि दर्शक क्या पसंद कर रहे हैं और अगले हफ़्ते किन चीज़ों को दिखाया जाना चाहिए, किनको नहीं। टीआरपी ने ट्रेंड सेट करना शुरू कर दिया। अब चैनलों को इन्हीं ट्रेंड के पीछे दौड़ लगानी थी।
इसीलिए अगर किसी हफ़्ते भूत-प्रेत और चमत्कार वाले कार्यक्रमों ने टीआरपी दी तो सारे चैनल फिर उन्हीं पर पिल पड़े। अगर अपराध या टीवी सीरियलों की कतरनों पर आधारित कार्यक्रम हिट हो रहे हैं तो वे छाने लगे। अगर निर्मल बाबा की कृपा ज़्यादा टीआरपी देती दिखाई दी तो तमाम चैनलों पर दिन में कई-कई बार निर्मल बाबा नमूदार होने लगे।
टीआरपी के ज़रिए दो तरह के ट्रेंड तय होते थे। एक तो स्थायी भाव या दीर्घावधि वाले ट्रेंड और कुछ आकर चले जाने वाले। चैनल इन दोनों को साधने में जुट गए। मसलन, अपराध, सिनेमा, क्रिकेट, अंधराष्ट्रवाद सदाबहार टीआरपीदाता साबित हो रहे थे इसलिए वह लगातार अपनी प्रभावी उपस्थिति बनाए हुए हैं, जबकि अंधविश्वास, भूत-प्रेत, चमत्कार आदि आए और चले गए।
वास्तविक मुद्दे चैनलों से ग़ायब
लेकिन यहाँ उन मुद्दों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए जो टीआरपी ने बाहर कर दिए। इनमें ग़रीबी, बेरोज़गारी, आर्थिक विषमता, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, मज़दूर आदि जैसी महाव्याधियों से चैनलों ने अगर आँखें मूँद लीं तो उसकी एक बड़ी वज़ह यही टीआरपी है। इन मुद्दों में टीवी के मध्यवर्गीय दर्शकों की रुचि नहीं रही इसलिए वे टीआरपी नहीं देते थे।
इस टीआरपी-संचालित पत्रकारिता ने ही उन तमाम दुर्गुणों को भी चैनलों में भर दिया जिन्हें हम टेबलॉयड पत्रकारिता के चरित्र का हिस्सा मानते हैं। यानी सनसनी, झूठ, अफवाह, सेलेब्रिटियों के निजी जीवन में ताक-झाँक, चेक जर्नलिज्म, ब्लैकमेलिंग वगैरह सब टीवी पत्रकारिता पर छाते चले गए। स्टिंग ऑपरेशन डराने-धमकाने और वसूली के औज़ार बना दिए गए।
जैसे-जैसे चैनलों की संख्या बढ़ने लगी, टीआरपी की होड़ भी बढ़ती चली गई। हालाँकि विज्ञापनों में भी तेज़ी से वृद्धि हो रही थी, मगर उस अनुपात में नहीं जितनी कि चैनलों की संख्या बढ़ रही थी। इसलिए चैनलों के बीच टीआरपी का संघर्ष और भी तीखा होता चला गया। बाज़ारवादी तर्क देते हैं कि प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता सुधरती है। मगर यहाँ उल्टा हुआ। प्रतिस्पर्धा ने कंटेंट को और भी गिरा दिया।
तमाम दंद-फंद के बावजूद अधिकांश चैनल टीआरपी की होड़ में पिटते चले गए और घाटे में चलने लगे। इस घाटे की पूर्ति के लिए वे कंटेंट के साथ समझौता कर रहे हैं और कई ऐसे उपायों की तरफ़ चले गए हैं जो मीडिया के लिए निषिद्ध या वर्जित माने जाते हैं। इन्हें आप विशुद्ध भ्रष्टाचार कह सकते हैं।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफ़ी चर्चित रही है।)
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