शिवसेना ने आदित्य ठाकरे के बजाय एकनाथ शिंदे को विधायक दल का नेता चुनकर क्या मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा छोड़ दिया है? यह सवाल पार्टी के विधायक दल की बैठक में शिंदे के चयन के बाद उभरकर आना लाजिमी ही था। क्योंकि बैठक से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि आदित्य ठाकरे को यह पद मिल सकता है। लेकिन शिवसेना का कहना है कि विधायक दल के नेता और मुख्यमंत्री पद में कोई संबंध नहीं है।
शिवसेना ने यह भी कहा है कि बीजेपी के साथ गठबंधन में मुख्यमंत्री पद के कार्यकाल के बंटवारे का सवाल अभी भी मजबूती से कायम है। उल्लेखनीय है कि साल 2014 में भी जब बीजेपी और शिवसेना में गठबंधन को लेकर इसी तरह की रार चल रही थी तब भी शिवसेना ने एकनाथ शिंदे को विधानसभा में विरोधी पक्ष के नेता के रूप में चुना था। शिंदे कुछ दिन तक उस पद पर बने भी रहे और जब दोनों पार्टियों में गठबंधन का पेच सुलझ गया तो शिंदे को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। उस समय बीजेपी ने बिना बहुमत के विधानसभा के पटल पर विश्वास प्रस्ताव रखा था और उसे एनसीपी का समर्थन हासिल है, यह घोषणा करते हुए शोर-शराबे के बीच बहुमत सिद्ध करने की घोषणा करा ली थी। तो क्या शिवसेना इस बार बीजेपी की ऐसी ही किसी चाल से बचने के लिए इस तरह की रणनीति अख्तियार नहीं कर रही है।
आदित्य ठाकरे पहली बार विधानसभा में पहुंचे हैं, ऐसी परिस्थितियों में वह कैसे सदन को संभाल पायेंगे, यह भी एक सवाल है? क्योंकि इस तरह की ख़बरें भी चल रही हैं कि एक-दो दिन में अगर शिवसेना के साथ बंटवारा तय नहीं हो पाता है तो फडणवीस विधानसभा के पटल पर विश्वास प्रस्ताव रखेंगे और पिछली बार की तरह ही उसे पास करा लेंगे। अगर इस बार भी वह ऐसा करने में सफल रहे तो उनके ख़िलाफ़ कम से कम 6 महीने तक अविश्वास प्रस्ताव नहीं आ सकेगा और इतने समय में वह कुछ वैकल्पिक दांवपेच लगाकर दूसरे दलों के विधायकों को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर सकेंगे।
इस बार कांग्रेस-एनसीपी ने बीजेपी को किसी भी प्रकार का समर्थन देने की घोषणा करने के बजाय उनके विश्वास मत पर ही ज़्यादा निगाहें लगा रखी हैं। लेकिन एकनाथ शिंदे के शिवसेना के विधायक दल के नेता बनने की बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
सत्ता में बंटवारे को लेकर इसी तरह की तनातनी जब 2014 में हुई थी, उस समय ऐसी चर्चाओं का दौर चरम पर था कि शिवसेना के विधायकों का एक गुट पार्टी छोड़कर बीजेपी के साथ जा सकता है। यह भी चर्चाएं थी कि उन विधायकों के दबाव के कारण ही बीजेपी और शिवसेना में मंत्री पदों का बंटवारा हुआ और शिवसेना को कम अहमियत वाले 13 मंत्रालयों पर संतोष करना पड़ा था।
क्या दबाव में है शिवसेना?
पूरे पांच साल तक मंत्रालयों के समान बंटवारे को लेकर शिवसेना के बयानों में एक दर्द या असंतोष नजर भी आता रहा। तो क्या अब फिर से शिवसेना किसी तरह के दबाव में आ गयी है? क्योंकि गत दिनों बीजेपी के एक सांसद ने कहा था कि शिवसेना के 45 विधायक उनके संपर्क में हैं और वे अलग दल बनाकर बीजेपी की सरकार को समर्थन देने को तैयार हैं लेकिन शिवसेना ने इस बात को मजाक में उड़ा दिया था।
शिवसेना बार-बार यही कह रही है कि वह 50:50 के फ़ॉर्मूले से नीचे किसी भी समझौते को स्वीकार नहीं करने वाली है और उसके सामने दूसरे विकल्प भी हैं।
शिवसेना का कहना है कि जब लोकसभा चुनावों के लिए गठबंधन की बात करने के लिए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिलने उनके आवास मातोश्री पर पहुंचे थे, तभी यह बात निकलकर आई थी कि सत्ता में हिस्सेदारी का फ़ॉर्मूला 50 :50 का होगा।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने गत दिनों इस बात को खारिज करते हुए कहा था कि उस समय ऐसे किसी फ़ॉर्मूले पर बात ही नहीं हुई थी। जब शिवसेना की तरफ़ से आक्रामक विरोध किया गया तो उन्होंने उसी दिन अपने बयान में सुधार किया और कहा कि हो सकता है यह फ़ॉर्मूला अमित शाह और उद्धव ठाकरे की बंद कमरे में हुई बैठक में तय किया गया हो, जिसमें वह उपस्थित नहीं थे।
‘एनजीओ नहीं है मुख्यमंत्री का पद’
शिवसेना कह रही है कि 50:50 के फ़ॉर्मूले में मुख्यमंत्री का पद भी शामिल है और यह बात सिर्फ़ मंत्रालयों के बंटवारे तक सीमित नहीं है। पार्टी के प्रवक्ता संजय राउत जो मुखपत्र सामना के संपादक भी हैं, ने बुधवार को संपादकीय भी इसी को केंद्रित करते हुए लिखा है। उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री का पद कोई एनजीओ नहीं है उसका भी ढाई-ढाई साल बंटवारा होना चाहिए। लेकिन मुख्यमंत्री पद तो दूर बीजेपी द्वारा शिवसेना को दिए गए जो अनाधिकारिक प्रस्ताव खबरों में हैं उनके हिसाब से इस बार वह शिवसेना को तीन और मंत्री पद यानी कुल 16 विभाग ही देना चाहती है। वह आदित्य ठाकरे को उप मुख्यमंत्री बनाये जाने के प्रस्ताव पर भी चर्चा कर सकती है?
दरअसल, साल 2014 में बीजेपी ने शिवसेना को जो मंत्रालय दिए थे, उस समय कहा गया था कि कि शिवसेना को उसका हक नहीं दिया गया। इससे पहले सत्ता का यह बंटवारा 1995 के फ़ॉर्मूले के तहत हुआ था। 1995 के फ़ॉर्मूले में यह बात थी कि जिस पार्टी के ज़्यादा विधायक आयेंगे, उसे मुख्यमंत्री पद मिलेगा। उस समय शिवसेना के 73 विधायक जीते थे जबकि बीजेपी के 65 और सरकार को 45 निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल था। तब शिवसेना को मुख्यमंत्री के साथ-साथ राजस्व, उद्योग, परिवहन जैसे अहम विभाग मिले थे जबकि बीजेपी को उप मुख्यमंत्री के साथ गृह, वित्त और योजना, स्वास्थ्य जैसे जनता से सीधे जुड़ाव वाले विभाग मिले थे। उस समय भी यही कहा जाता था कि बीजेपी ने मंत्रालयों के बंटवारे में चतुराई दिखाई और महत्वपूर्ण विभाग अपने पास रख लिये।
1999 में सरकार बनाने के लिए जब कांग्रेस-एनसीपी में गठबंधन हुआ, उस समय भी इसी फ़ॉर्मूले को आधार बनाकर कांग्रेस और एनसीपी ने मुख्यमंत्री-उप मुख्यमंत्री और सम्बंधित मंत्रालयों का वितरण किया। इस फ़ॉर्मूले को 2014 में देवेंद्र फडणवीस ने तोड़ा।
2014 में अकेले दम पर 122 सीटें जीतने के बाद बीजेपी को ऐसा लगने लगा था कि वह अपने बूते पर सरकार चला लेगी, क्योंकि उसे बहुमत के लिए मात्र 23 और विधायकों की ज़रूरत थी। 8 निर्दलीय विधायकों के वह संपर्क में थी, ऊपर से एनसीपी प्रमुख शरद पवार का खुला न्यौता कि वह बिना किसी शर्त के समर्थन देने को तैयार हैं। बीजेपी और शिवसेना ने 2014 का विधानसभा चुनाव 25 सालों में पहली बार अलग-अलग लड़ा था। लेकिन इस बार दोनों ही दलों ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा है और शिवसेना इसीलिए नए फ़ॉर्मूले के आधार पर भागीदारी के लिए अड़ी हुई है।
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