महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी गई है। दिन में महाराष्ट्र के गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेज दी जिसमें यह कहा गया कि फ़िलहाल संविधान के हिसाब से सरकार बनना असंभव है। ऐसे में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए। केंद्र सरकार ने आनन-फानन में कैबिनेट बैठक बुलाकर गवर्नर की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति शासन लगाने का फ़ैसला कर लिया। ऐसे में सवाल यह है कि क्या राज्यपाल ने निष्पक्ष भूमिका निभाई? या वह केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे थे?
क्या सभी दलों के साथ वह समान ढंग से पेश आ रहे थे? राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत का आँकड़ा नहीं मिलने के बाद सत्ता स्थापित करने का खेल पिछले 20 दिनों से चल रहा था। और ऐसे में सबकी नज़रें राज्यपाल पर टिकी हुई थीं। राज्यपालों की भूमिका उस समय से ही संदेह के घेरे में आने लगी जब से इन पदों का राजनीतिकरण होने लगा है। यानी इन पदों पर सत्ताधारी दल अपनी पार्टी के रिटायर होने वाले नेताओं को बिठाने लगी है। जिस-जिस प्रदेश में सत्ता का समीकरण अपूर्ण बहुमत के साथ उलझने लगता है वहाँ यह सवाल खड़े होने लगता है कि क्या राज्यपाल ने निष्पक्ष भूमिका निभाई?
क़ानून के कई जानकार इस बात को कह रहे हैं कि शिवसेना ने सहयोगी दलों से चर्चा और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को तय करने के लिए 48 घंटों का अतिरिक्त समय ही माँगा था जो उसे दे दिया जाना चाहिए था।
देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद उन्हें फिर से सरकार बनाने का आमंत्रण और 48 घंटे का समय दिया गया था यह बताने के लिए कि वे सरकार स्थापित करना चाहते थे या नहीं? बीजेपी के असमर्थता जताने पर शिवसेना का नंबर आया था। शिवसेना को 24 घंटे का समय दिया गया था।
शिवसेना नेता आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में राज्यपाल से मिले थे और इस बात की इच्छा जताई थी कि उनकी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस से गठबंधन कर सरकार बनाने की इच्छुक है। लेकिन राज्यपाल ने शिवसेना की इस अपील को स्वीकार नहीं किया और राष्ट्रवादी कांग्रेस को सरकार बनाने का निमंत्रण भेज दिया था।
राज्यपाल के इस निर्णय को लेकर कई शंकाएँ और सवाल लोगों के मन में उठ रहे हैं। अगर राज्यपाल को लगता है कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के बाद भी कोई पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है तो वह राज्य में मध्यावधि चुनाव की सलाह दे सकते हैं। राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद राज्य की सभी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास सुरक्षित हो जाती हैं। विधानसभा का कार्य संसद करती है। इसके लिए दो महीने के भीतर संसद की मंज़ूरी ज़रूरी है। राज्य में 6 महीने या ज़्यादा से ज़्यादा 1 साल के लिए राष्ट्रपति शासन लागू रह सकता है। यदि एक साल से अधिक राष्ट्रपति शासन को आगे बढ़ाना है तो इसके लिए केंद्रीय चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होगी। ऐसे में एक साल के बाद फिर से चुनाव की संभावना को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता।
सियासी जानकार अभी बीजेपी के सरकार बनाने की संभावना को पूरी तरह ख़ारिज़ नहीं कर रहे हैं। हालाँकि अभी बीजेपी ने सरकार गठन को लेकर हाथ खड़े कर दिए हैं लेकिन किसी और पार्टी की मदद से बीजेपी एक बार फिर सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के पास पहुँच सकती है। इन परिस्थितियों में सारे निर्णय राज्यपाल के स्व विवेक पर आधारित होते हैं और इस बात के ढेरों उदाहरण हैं कि ये निर्णय राजनीति को कितने प्रभावित करते रहे हैं।
राज्यपालों की भूमिका रही है संदेह के घेरे में
राज्यपालों के असंवैधानिक फ़ैसलों का शिकार अधिकांश राज्य रहे हैं। कर्नाटक में भी ऐसा हुआ था। कर्नाटक में 1983 में पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी और रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री बने। उनके बाद अगस्त, 1988 में एसआर बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने 21 अप्रैल, 1989 को नैतिकता के आधार पर बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया। राज्यपाल सुबैया ने कहा कि बोम्मई सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी है। बोम्मई ने विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल से अनुमति माँगी, लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया। बोम्मई ने राज्यपाल के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट कर सकता है हस्तक्षेप
सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों की संवैधानिक खंडपीठ ने एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में बहुचर्चित निर्णय दिया। इसमें संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश थे। इस निर्णय की बड़ी विशेषता यह है कि इसने अनुच्छेद 356 के प्रयोग को अदालतों द्वारा समीक्षा न कर सकने की परंपरा को उलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा- उन सभी मामलों में, जहाँ कुछ विधायकों द्वारा सरकार से समर्थन वापस लेने की बात हो, बहुमत के निर्धारण का उचित तरीक़ा सदन में शक्ति परीक्षण है, न कि किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत मत, भले ही वह राज्यपाल हो या राष्ट्रपति। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद बोम्मई सरकार फिर से बहाल हुई।
बोम्मई फ़ैसला भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अहम फ़ैसला माना जाता है। ऐसी उम्मीद की गयी थी कि इस फ़ैसले के बाद राज्यपालों के मनमाने रवैये पर लगाम लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसके बाद भी राज्यपालों की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं।
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