महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तारीख़ें आने वाले कुछ दिन में घोषित हो जाएँगी, लेकिन इस बार चुनावी चक्रव्यूह कैसा रहेगा? दलबदल का ‘खेल’ चलने से यह तय करना मुश्किल है कि चुनाव में विपक्ष किस रूप में खड़ा मिलेगा? पहले राजनीतिक पार्टियाँ अपनी नीतियों और कामकाज को लेकर चुनाव लड़ती रही थीं, लेकिन यहाँ जो चल रहा है उससे तो यही लग रहा है कि दूसरी पार्टियों के जिताऊ नेता को अपनी पार्टी में शामिल कर लो और चुनाव जीत जाओ। शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के जितने क्षत्रप तैयार किए थे वे सभी एक-एक कर उन्हें छोड़ सत्ताधारी बीजेपी और शिवसेना में जा चुके हैं। अजित पवार के साले पूर्व सांसद पद्मसिंह पाटिल के पुत्र राणा जगतजीत सिंह भी बीजेपी में चले गए। कांग्रेस -राष्ट्रवादी कांग्रेस के कई और नेता अपना सामान बाँध कर तैयार बैठे हैं।
सरकार की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने इस मुद्दे को झटकने के लिए एक दो आंदोलन किए, लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा। सरकारी मदद नहीं मिलने और निजी कंपनियों में सुनवाई नहीं होने की वजह से बड़ी संख्या में किसानों ने फ़सल बीमा कराना ही बंद कर दिया है लेकिन सरकार है कि इस योजना को लेकर अपनी पीठ थपथपाने से नहीं थक रही।
प्रदेश के आधे ज़िले सूखे तथा कुछ बाढ़ की चपेट में हैं। इसमें सरकारी मशीनरी फ़ेल होती दिख रही है, लेकिन उसकी भी चर्चा नहीं है। महाराष्ट्र में बेरोज़गारी संकट पर भी खामोशी है। राजनीति में चर्चा सिर्फ़ इस बात की चल रही है कि फलां नेता ने आज पार्टी छोड़ दी, फलां नेता कल छोड़ने वाला है।
‘आया राम गया राम’
दलबदल का जो वीभत्स चेहरा महाराष्ट्र में देखने को मिल रहा है उसने हरियाणा के उस दलबदल को याद दिला दी जिसकी वजह से ‘आया राम गया राम’ का मुहावरा प्रचलित हो गया था। हरियाणा का वाक़या 1967 का है। हसनपुर से विधायक चुने गए गया लाल 24 घंटे के अंदर तीन दलों में शामिल हुए थे। पहले वह कांग्रेस से यूनाइटेड फ़्रंट में गए। फिर कांग्रेस में लौटे और फिर नौ घंटे के अंदर ही यूनाइटेड फ़्रंट में वापस हो गए। उस समय कांग्रेस नेता बीरेंद्र सिंह ने कहा था, ‘गया राम, अब आया राम’ है। इसके बाद दलबदलू नेताओं के लिए ‘आया राम, गया राम’ मुहावरा बन गया।
दल बदल को रोकने के लिए संसद को दल बदल निरोधक क़ानून बनाना पड़ा, लेकिन वह भी नेताओं का रास्ता नहीं रोक पाई है। लोकसभा चुनाव के दौरान शिवसेना ने इस दल बदल को लेकर बीजेपी पर तंज कसा था और सलाह दी थी कि पार्टी के जो कार्यकर्ता वर्षों तक भगवा झंडा कंधे पर लेकर घूमे हैं उन्हें मौक़ा देने की बजाय दूसरे दलों के दागियों या उन परिवारों के सदस्यों को क्यों टिकट दिया जा रहा है जिन्होंने हमारे विरोध में काम किया है। लेकिन विधानसभा चुनाव आते-आते शिवसेना ने भी दूसरे दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना शुरू कर दिया।
दूसरे दलों के नेताओं को क्यों जोड़ रही बीजेपी?
ऐसे में अब सवाल यह खड़ा होने लगा कि जब सत्ताधारी दल को 288 में से 220 सीटें जीतने का भरोसा है तो फिर वह दूसरी पार्टियों के विधायकों व नेताओं को क्यों अपनी पार्टी में शामिल करने की जी तोड़ कोशिश में जुटा हुआ है। एक दिन पहले बीजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह यहाँ आए थे और बोल कर गए कि यदि बीजेपी दल बदल के लिए दरवाज़ा खोल देगी तो राष्ट्रवादी कांग्रेस में शरद पवार और कांग्रेस में पृथवीराज चव्हाण के अलावा कोई नहीं बचेगा। अमित शाह का यह बयान अपने आप में विरोधाभासी है। अब तक जो नेता बीजेपी में शामिल हुए हैं क्या वे ज़बरदस्ती घुसे हैं? यदि हाँ तो उनके लिए चुनाव से ठीक पहले राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार क्यों किया गया और ऐसे लोगों को भी मंत्रि पद क्यों दे दिया गया जो विधानसभा या विधान परिषद में किसी एक के भी सदस्य नहीं हैं। सरकार का कार्यकाल 6 महीने का भी शेष नहीं रहा था ऐसे में उनके मंत्री पद को अदालत में चुनौती भी दी गयी है।
एक सभा में फडनवीस ने यहाँ तक कहा कि प्रदेश का अगला विरोधी पक्ष नेता प्रकाश आम्बेडकर की पार्टी वंचित आघाडी का होगा। उनकी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष रावसाहब दानवे ने कह दिया था कि इतने लोग भी हमारी पार्टी में मत आओ कि हमें ही पार्टी से निकाल दो। इसके विपरीत बीजेपी के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष हर रोज़ मीडिया में आकर आँकड़े बताते हैं कि उनसे आज विपक्षी दलों के कितने विधायक मिलकर गए। पार्टी ने इस दल बदल के लिए एक मंत्री को ज़िम्मेदारी सौंप रखी है, वह भी हर दिन कोई न कोई बड़ा दावा करते रहते हैं।
मेट्रो के डिब्बे देखकर लोग होंगे ख़ुश?
इस दल बदल से इतर मुख्यमंत्री ने पिछले पाँच सालों में क्या बड़ा काम किया, इसका ज़िक्र करने की बजाय वह रोज़ नई-नई घोषणाएँ कर रहे हैं। यदि सारी परिस्थितियाँ उनके अनुकूल हैं तो मतदाताओं को लुभाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं? वे बेरोज़गारी जैसे मुद्दे से क्यों भाग रहे हैं जिससे प्रदेश का युवा सबसे ज़्यादा प्रभावित है? मुंबई और नवी मुंबई में मेट्रो का काम जिस रफ़्तार से चल रहा है उसे पूरा होने में काफ़ी समय लगने वाला है, ऐसे में चुनाव से ठीक पूर्व सोमवार को मेट्रो ट्रेन के डिब्बे मुंबई में मंगवाकर उसकी मीडिया में प्रदर्शनी कराने की क्यों ज़रूरत पड़ रही है? मुंबई महानगर परिक्षेत्र में पिछले पाँच साल में सरकार ने क्या किया, यह दिखाने के लिए उसके पास ये डिब्बे ही हैं?
इस सच को मुंबई में कोई भी नकार नहीं सकता कि पृथ्वीराज चव्हाण के कार्यकाल में मुंबई में ईस्टर्न और वेस्टर्न दो फ्री-वे का निर्माण हुआ था जिसकी वजह से इस शहर के यातायात को बहुत बड़ी राहत मिली थी। लेकिन जब शरद पवार ने विपक्ष के नेता की हैसियत से सरकार से पाँच साल के कामकाज का हिसाब पूछा तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि पहले वह अपने 15 साल के कामकाज का हिसाब दें कि उस दौर में क्या हुआ। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या राजनीति केवल घोषणाओं का खेल बन चुकी है?
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