गांव देहात या फिर शहरों में अक्सर ऐसा होता है कि पानी के नलके पर पानी भरने को लेकर लड़ाई होती है जिसमें कई बार संतुलन बिगड़ जाता है और बात तू-तू, मैं-मैं पर उतर आती है। महाराष्ट्र की राजनीति भी इसी स्तर पर उतर आयी है जहां राजनीतिक मुददों पर लड़ने के बजाय ‘तू नहीं जानता मैं कौन हूं’ या ‘मेरे मुंह मत लगना’ जैसे मुहावरे अब इस्तेमाल होने लगे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार निरंजन परिहार कहते हैं ये सब पार्टियों के नेताओं के लिए फायदेमंद हैं क्योंकि लड़ाई अब असली बात पर नहीं बस जुबानी जंग पर आ गयी है और दूसरे पायदान के नेता आपस में लड़ रहे हैं इसलिए पहली पायदान के नेता बस मजे ले रहे हैं। लेकिन इस सबसे एक बड़ा नुकसान हो रहा है कि इस चक्कर में विकास और जमीनी काम दोनों पिछ़ड रहे हैं। हालांकि ये लड़ाई इसलिए भी इस स्तर पर आ गयी है क्योंकि अगले दो महीनों में महानगरपालिका यानि मनपा के चुनाव होने हैं।
जांच एजेंसियों में काम करने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार पहले ही समीर वानखेड़े के प्रकरण के कारण जांच एजेंसियों की काफी बदनामी हो चुकी है और अब नेता जिस तरह से ईडी और सीबीआई को लेकर दावे और आरोप लगा रहे हैं उससे एजेंसियों के अफसर सहम गये है।
सबको लगता है कि अगर बहुत आगे गये तो राजनीतिक कीचड़ में उलझ सकते हैं। इस बीच दो बड़े घोटालों - गुजरात के बैंक घोटाले और एनएससी की सीईओ का एक योगी बाबा से बात कर घोटाले करने के प्रकरण पीछे रह गये है। बाजार के जानकार एक शेयर ब्रोकर के हिसाब से एनएससी का मसला अगर सच में पूरा खुल जायेगा तो कई बड़े धनपति इसकी चपेट में आ सकते हैं। खासतौर पर उन बड़े ब्रोकर की भी जांच होनी चाहिये जिनको एनएसई की बिल्डिंग के पास जगह देकर फायदा दिया गया। एक सवाल ये भी छूट गया कि एनएसई में किसने चित्रा सुब्रमण्यम को सीईओ बनाया।
बहरहाल हम बात कर रहे थे राज्य की राजनीति की जिसमें शुरुआत हुयी नवाब मलिक और समीर वानखेड़े की लड़ाई से जिसमें फिलहाल वानखेड़े की मुश्किलें और बढ़ सकती है। उनके खिलाफ विभागीय जांच भी शुरु हो गयी है। जाहिर है राजनीति में अफसरो को नहीं उतरना चाहिये क्योंकि उनकी अपनी सीमा होती है और नेता को हराना आसान नहीं ।
इससे पहले से ही निशाने पर आ रही केंद्रीय जांच एजेसिंयो के काम में मुश्किलें पैदा होगी और वो सही मामले को भी अंजाम तक नहीं पहुंचा पायेंगी।
सबसे खराब बात ये भी है कि केन्द्र में सरकार चला रही बीजेपी के शीर्ष नेता इस सब पर आंख मूंदे हुये हैं उनको इस छिछले पन की लड़ाई को रोकना चाहिये । राजनीति के चलते जब एक दूसरे के कपड़े फाड़ने की नौबत आ जाये तो समझ लेना चाहिये कि अब कहने को कुछ बचा नहीं है।
एक शेर कुछ इस तरह है।
मेरा भी शीशे का घऱ
तेरा भी शीशे का घर
फिर मेरे तेरे हाथ में पत्थर क्यूं है
मैं भी सोचूं तू भी सोच
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