क्या देश में केंद्र-राज्य संबंधों के टकराव का एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है? महाराष्ट्र में भीमा कोरेगाँव प्रकरण की जांच के मामले में कुछ ऐसा ही लग रहा है। प्रदेश में सरकार बदलने के बाद जब एनसीपी प्रमुख शरद पवार के एक पत्र के बाद गृह मंत्री ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाकर इस मामले की समीक्षा करनी शुरू की तो केंद्र सरकार द्वारा इस जांच को केंद्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने का निर्णय ले लिया गया। इसे केंद्र के राज्य सरकार के साथ टकराव के रूप में देखा जा रहा है।
अपने पत्र में शरद पवार ने आरोप लगाए थे कि पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भीमा कोरेगाँव का षड्यंत्र पुलिस अधिकारियों को दबाव में डालकर करवाया था। पवार ने यह भी कहा था कि भीमा कोरेगाँव प्रकरण से 'अर्बन नक्सल' जैसे शब्द की उत्पति की गयी और सामाजिक तथा मानवाधिकार के लिए कार्य करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं का माओवादी संगठनों से संबंध बताकर उन्हें गिरफ्तार किया गया। शरद पवार के इस आरोप के बाद प्रदेश की राजनीति गरमा गयी थी।
‘राज्य के अधिकारों के ख़िलाफ़’
राज्य सरकार मामले में एसआईटी जांच के आदेश देती इससे पहले ही अचानक केंद्र सरकार ने जांच एनआईए को सौंप दी। केंद्र के इस निर्णय की प्रदेश के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने कड़ी निंदा की है। उन्होंने कहा कि जब महाराष्ट्र सरकार ने इस प्रकरण की जांच नए सिरे से करवाने का निर्णय कर लिया था, ऐसे में बिना राज्य सरकार से कोई अनुमति लिए केंद्र सरकार ने यह फ़ैसला क्यों कर लिया? उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार का यह निर्णय राज्य के संवैधानिक अधिकारों के ख़िलाफ़ है।
देशमुख ने कहा कि राज्य की क़ानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। ऐसे में जब राज्य सरकार इस मामले की विस्तारित जांच के लिए आगे बढ़ रही थी तो केंद्र ने दख़ल क्यों दिया?
गृह मंत्री ने कहा कि इस संबंध में राज्य के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को केंद्र सरकार ने निर्देश दिए हैं कि मामले की जांच अब एनआईए करने वाली है। केंद्र सरकार के इस आदेश के बाद महाराष्ट्र में ना सिर्फ केंद्र-राज्य संबंधों के टकराव की एक नई शुरुआत होने की आशंकाएं जताई जा रही हैं, अपितु एक नया राजनीतिक ध्रुवीकरण भी होगा। शरद पवार ने जिस तरह यह मामला उठाया है उससे यह राजनीतिक रंग तो लेने वाला ही है। यह भी सवाल उठेगा कि शरद पवार द्वारा लगाए गए आरोप क्या वाकई में सही हैं?
सवाल यह खड़ा होता है कि क्या केंद्र सरकार इस मामले की जांच एनआईए से कराने के बहाने कुछ छुपाना चाहती है? पिछले कुछ सालों में सीबीआई की तरह एनआईए की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाये गए हैं।
1 जनवरी, 2018 को पुणे के भीमा-कोरेगाँव में हिंसा हुई थी। दलित समुदाय के लोग 200 साल पहले दलितों और मराठाओं के बीच हुई लड़ाई में दलितों की जीत का जश्न मनाने के लिए हर साल वहां इकट्ठा होते हैं। लेकिन 2018 में 1 जनवरी को वहां दंगे भड़क गये थे। पुलिस का आरोप था कि कार्यक्रम के एक दिन पूर्व हुई यल्गार परिषद के आयोजकों के नक्सलियों से संबंध थे। पुलिस ने इस संबंध में 10 सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था जो इन दिनों जांच का सामना कर रहे हैं।
अपनी राय बतायें