कुछ साल पहले हमारे देश में एक सवाल बहुत चर्चा में हुआ करता था और वह था कि क्या देश में चुनाव मुद्दा विहीन होते जा रहे हैं? लेकिन अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या चुनावों के लिए ही कोई मुद्दा खड़ा किया जा रहा है? यह दूसरा सवाल पहले सवाल का उत्तर नहीं है बल्कि कमोबेश पहले सवाल का नया रूप ही है और अपने आप में एक सवाल भी है। कहने का मतलब यह है कि चुनावों के लिए जो मुद्दे गढ़े जा रहे हैं उनसे जनता का कोई सरोकार है या नहीं? या वे जनता को उनके मूलभूत मुद्दों से भटकाकर उन्हें भावनात्मक स्थिति में ले जाने वाले हैं।