कुछ साल पहले हमारे देश में एक सवाल बहुत चर्चा में हुआ करता था और वह था कि क्या देश में चुनाव मुद्दा विहीन होते जा रहे हैं? लेकिन अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या चुनावों के लिए ही कोई मुद्दा खड़ा किया जा रहा है? यह दूसरा सवाल पहले सवाल का उत्तर नहीं है बल्कि कमोबेश पहले सवाल का नया रूप ही है और अपने आप में एक सवाल भी है। कहने का मतलब यह है कि चुनावों के लिए जो मुद्दे गढ़े जा रहे हैं उनसे जनता का कोई सरोकार है या नहीं? या वे जनता को उनके मूलभूत मुद्दों से भटकाकर उन्हें भावनात्मक स्थिति में ले जाने वाले हैं।
महाराष्ट्र: किसानों की आत्महत्या नहीं, 370 है चुनावी मुद्दा?
- महाराष्ट्र
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- 14 Oct, 2019

चुनावों के लिए जो मुद्दे गढ़े जा रहे हैं उनसे जनता का कोई सरोकार है या नहीं? या वे जनता को उनके मूलभूत मुद्दों से भटकाकर उन्हें भावनात्मक स्थिति में ले जाने वाले हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने साल 2014 का चुनाव नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भ्रष्टाचार और कालाधन वापस लाकर देश की जनता के 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के नारे के साथ लड़ा था। जनता ने परिवर्तन के नाम पर उन्हें बड़ा बहुमत दिया। लेकिन उसके बाद देश में जितने भी चुनाव हुए सरकार ने जिस परिवर्तन की बातें कही थीं उनके आधार या अपने कामकाज से ज़्यादा किसी नए मुद्दे या चर्चा को उभार कर ही लड़ने का प्रयास किया।