बीसवीं सदी के आठवें दशक से दलित साहित्य का उभार एक बड़ी परिघटना थी। दलित लेखकों ने साहित्य और इतिहास के परिसर में अपने अलहदा अनुभव और नवाचार से हिंदी साहित्य को नया आयाम देने का काम किया है। दलित साहित्यकारों ने पहले तो अपनी आत्मकथाओं से संसार को यह बताया कि उनके ऊपर क्या गुजरी है। इसके बाद उन्होंने इतिहास और साहित्य से ओझल किए जा चुके बहुजन नायकों को सामने लाने के ऐतिहासिक काम को अंजाम दिया।
पिछले चार दशकों से दलित साहित्य में सक्रिय भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ दलित चिंतक मोहनदास नैमिशराय लगातार लेखन से बहुजन इतिहास का उत्पादन करते आ रहे हैं। इस विमर्शकार ने सन 2013 में ‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास’ शीर्षक से चार खंडों में इतिहास ग्रंथ लिखा था। मोहनदास नैमिशराय का यह अकादमिक इतिहास ग्रंथ इतिहास की दुनिया में मील का पत्थर है। यह इतिहास ग्रंथ केवल बहुजन समाज के सामाजिक राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक इतिहास को ही सामने नहीं रखता है बल्कि यह ग्रंथ सवर्णों के इतिहास और ज्ञान की पैंतरेबाजी को भी हमारे सामने रखने का काम करता है।
भारतीय इतिहास का उत्पादन और उत्खनन करते हुए विशेषकर सवर्ण पृष्ठभूमि के इतिहासकार दलित पक्ष को सामने लाने से बचते रहे हैं। इतिहास के भारी-भारी ग्रन्थों में बहुजन समाज के सुधारकों, क्रांतिकारियों, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का ज़िक्र न के बराबर मिलता है। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक और ऐतिहासिक तौर पर दलित और उसकी उपस्थिति को हाशिये पर धकेलने का प्रयास किया जाता रहा है। एक तरह से उसकी बौद्धिक अस्मिता को भी ख़ारिज करने की पहलकदमी भी इतिहासकारों की ओर से की गयी।
मोहनदास नैमिशराय अपने इतिहास लेखन में तीन सौ साल के बहुजन इतिहास को सामने रखने का प्रयास करते हैं। वह बताते हैं कि सैकड़ों ऐसे दलित नायक और बुद्धिजीवी थे जिनकी राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका रही है पर मुख्यधारा के इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थों में उनका जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा। मोहनदास नैमिशराय ‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास’ में सैकड़ों बहुजन नायकों की खोज कर उनकी बौद्धिकता को सामने लाते हैं। इससे पता चलता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक दुनिया में बौद्धिक निर्मितियों में बहुजन नायकों की कितनी अहम भूमिका रही है।
‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास’ के दूसरे भाग में पेरियार ई.वी.रामास्वामी, जयदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, ललाई सिंह, बाबू मंगल सिंह जटाव, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, जनकवि बिहारी लाल, छ्त्रपति साहू जी महाराज, रमाबाई अंबेडकर, जायबई चौधरी से लेकर महाश्य भिखुलाल चौधरी तक ना जाने कितने ही अस्मितावादी नायकों के योगदान को वो हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।
हालिया दिनों में ‘सावित्री बाई फुले’, ‘माता रमाबाई अम्बेडकर’, ‘हमने भी इतिहास बनाया है’,‘बाबा साहब आंबेडकर’ और ‘मान्यवर काशीराम बहुजनों के नायक’ शीर्षक से मोहनदास नैमिशराय की पाँच पुस्तिकाएँ मिशन जयभीम प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।
अस्मितावादी इतिहास की दृष्टि से ये पुस्तिकाएँ बड़ी महत्व की हैं। इन पुस्तिकाओं में बड़ी सहज और सरल भाषा में बहुजन नायकों के जीवन संघर्ष की महत्वपूर्ण घटनाओं को साफगोई के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन पुस्तिकाओं को इतिहास निर्माण के एक छोटे प्रोजेक्ट के तौर भी देखा जा सकता है।
औपनिवेशिक भारत में सावित्री बाई फुले ने स्त्री शिक्षा और उसकी वैचारिकी को धार देने में बड़ी भूमिका निभायी थी। औपनिवेशिक भारत में जब मिशनरियों की तरफ़ से स्त्री शिक्षा के लिए जनाना स्कूल खोलने पर बल दिया जा रहा था तो उसी समय जोतीराव फुले ने स्त्रियों के वास्ते स्कूल खोले थे। उन्नीसवीं सदी में स्त्री शिक्षा का यह प्रयास किसी बड़ी परिघटना से कम नहीं था। सावित्री बाई ने इन स्कूलों में बालिकाओं को पढ़ाने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में किसी स्त्री का शिक्षिका हो जाना मर्दवादियों के लिए बड़ी अचरज भरी बात थी। मर्दवादियों की ओर से उन्हें अपमानित करने का प्रयास भी खूब किया गया था।
सावित्री बाई फुले पुस्तिका में मोहनदास नैमिशराय सावित्रीबाई फुले के जीवन पर विविध पहलुओं पर सूत्र रूप में प्रकाश डालते हैं। पहले तो मोहनदास नैमिशराय उनकी बौद्धिकता और सृजन से पाठकों को तारुफ़ करवाते हैं। इसके बाद स्त्री वैचारिकी में उनकी भूमिका को रेखांकित करते हैं।
औपनिवेशिक भारत में सावित्री बाई फुले ने सन 1852 में महिला मण्डल का गठन किया था। यह महिला अधिकारों और उनकी दावेदारी का सवाल उठाता था। इस मण्डल के मंच से बालविवाह का विरोध और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया जाता था। मोहनदास नैमिशराय बताते हैं कि यह मण्डल विधवा पुनर्विवाह का प्रबल पक्षधर था। इसी कड़ी में इस वरिष्ठ लेखक की दूसरी पुस्तिका ‘हमने भी इतिहास बनाया’ दलित स्त्री दृष्टि बड़ी महत्वपूर्ण और मारक है। जो यह कहते हैं कि दलितों और स्त्रियों का अपना इतिहास नहीं है, उन्हें यह छोटी सी पुस्तिका ज़रूर पढ़नी चाहिए।
हमें यह पुस्तिका राधाबाई काम्बले, तुलसाबाई बनसोडे, सुलोचनाबाई डोंगरे, लक्ष्मीबाई नाईक: पहली भिक्खुणी, गीताबाई गायकवाड, मिनाम्बाल शिवराज, कौसल्या बसंत्री, नलिनी लढ़के, मुक्ता सालवे जाईबाई चौधरी, अंजनीबाई देशभ्रतार, विमल रोकड़े, मुक्ताबाई काम्बले, जे. ईश्वरी वाई, रजनी तिलक, मुक्ता सर्वगोड, शांताबाई दाणी, सखूबाई मोहिते पारवताबाई मेश्राम, दमयंती देशभ्रतार, चन्द्रिका रामटेके, शुद्धमती बोंधाटे, सुमन बंदिसोडे, भिक्खुणी चन्द्रशीला, बेबीताई कांबले शशिकला डोंगरदिवे लक्ष्मी देवी टम्टा : प्रथम दलित सम्पादिका, नागाम्मा और मनियाम्मा आदि तीस-बत्तीस महिलाओं के जीवन संघर्ष से रूबरू करवाती है। इस पुस्तिका में पहली दलित लेखिका मुक्ता सालवे के जीवन पर कम शब्दों में गंभीर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही प्रथम दलित संपादिका लक्ष्मी देवी टामता के जीवन संघर्ष से भी परिचित कराया गया है।
माता रमाबाई अंबेडकर पुस्तिका में मोहनदास नैमिशराय ने रमाबाई के जीवन संघर्ष को सामने रखा है। इस पुस्तक में माता रमाबाई अंबेडकर के जीवन संघर्ष को सामने रखती एक लंबी कविता भी शामिल है।
मोहनदास नैमिशराय की यह छोटी सी पुस्तिका बताती है कि बाबा साहेब के निर्माण में उनकी महती भूमिका रही है। मोहनदास नैमिशराय का मत है कि माता रमाबाई साधारण ज़रूर थीं, लेकिन उनके व्यक्तित्व के भीतर असाधारण तत्व थे।
मोहनदास नैमिशराय की इतिहास लेखन की यह कवायद बहुजन इतिहास लेखन की प्रक्रिया को विस्तार देती दिखायी देती है। मोहनदास नैमिशराय की ये पुस्तिकाएँ अस्मितावादी वैचारिकी की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। ये पुस्तिकाएँ बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों के जीवन संघर्ष से तो परिचित करवाती ही हैं और चेतना का विस्तार भी करती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुख्यधारा का इतिहास लेखन बहुजनों के योगदान पर मौन रहा है। जबकि मोहनदास नैमिशराय की ये पुस्तिकाएँ बताती हैं कि देश के निर्माण में बहुजनों का अमूल्य योगदान रहा है।
पुस्तिकाएँ- सावित्री बाई फुले, हमने भी इतिहास बनाया, माता रमाई अंबेडकर
प्रकाशक- जय भीम मिशन
मूल्य-25 प्रति पुस्तिका
अपनी राय बतायें