कर्नाटक में 2019 के लोकसभा चुनाव दो विचारधाराओं के बीच होगा। एक तरफ़ बीजेपी राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर वोट की राजनीति करेगी तो दूसरी तरफ़ संघीय व्यवस्था के नाम पर विपक्ष एकजुट होकर अपनी राजनीति जनता के सामने परोसेगा। एक तरफ़ मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी कह रही है कि भारत की सबसे बड़ी वर्तमान समस्या पाकिस्तान, मुसलमान आदि हैं, जिसे सशक्त राष्ट्रवाद के ज़रिए ही निपटा जा सकता है -तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन कह रहा है कि राज्यों पर सबसे बड़ा ख़तरा तानाशाही केंद्र का है, अतः राज्यों की स्वायत्तता बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। विपक्ष संविधान की दुहाई दे रहा है जिसमें ‘भारत राज्यों का संघ है’ लिखा हुआ है, तो बीजेपी ‘भारत एक राष्ट्र’ की लहर पर तैरने की फ़िराक़ में है। आने वाले कुछ दिनों में जनता का जो फ़ैसला आएगा, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि इन विचारों का उद्गम क्या है, तथा कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास में इन विचारों का महत्व कितना रहा है।
सांप्रदायिक संगठनों का यह चरित्र ही होता है कि वे एक ख़ास उपासना पद्धति अपनाने का आग्रह रखते हैं, तथा उस आग्रह को लागू करने के लिए, सत्ता प्राप्ति के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं।
आरएसएस भी ऐसा ही एक सांप्रदायिक संगठन है जो पिछले 90 वर्षों से अपनी उपासना पद्धति को भारत भर में लागू करने के लिए अलग-अलग समय पर सत्ता प्राप्त करने के अलग-अलग हथकंडे अपनाता आ रहा है।
अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघ, जनसंघ से लेकर बीजेपी जैसे राजनीतिक दल भी खड़ा करता है, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थान भी चलाता है, 1977, 1999 की तरह दूसरे दलों के साथ गठबंधन भी करता है, वाजपेयी से लेकर योगी जैसे चेहरों को आगे भी करता है। उसकी हर कृति देश, काल, परिस्थिति में लाभांश प्राप्त करने की होती है।
कर्नाटक संघ के लिए अनुकूल?
पारम्परिक रूप से संघ की ध्रुवीकरण की विचारधारा को सबसे उर्वरा भूमि मिली कर्नाटक के दक्षिणी करावली यानी समुद्र तटीय क्षेत्र में जो मंगलूरु के आसपास पड़ते हैं। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद अधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा करावली के उद्यमशील प्रवासी अल्पसंख्यकों के पास आई, उनका जीवन स्तर बढ़ा जिससे समाज के बहुसंख्यकों के मन में हीन भावना जागृत हुई और इसका पुरज़ोर लाभ संघ ने बजरंग दल, श्रीराम सेना आदि के ज़रिये उठाया।
कर्नाटक बहुत बड़ा राज्य है, जिसमें कम से कम 5 भिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित हैं, जिनके खानपान, वेशभूषा, रीति-रिवाज, बोलियाँ, आदि एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं। तो ऐसी विविधता में एकरूपता लाने की दक्षिणपंथ की जबरन कोशिश को उतनी उर्वरा भूमि सब जगह नहीं मिली जितनी करावली में विशेष परिस्थितियों के कारण मिली।
करावली के अलावा बीजेपी की विचारधारा केवल मुम्बई, कर्नाटक में असरदार हुई क्योंकि वह क्षेत्र भौगोलिक रूप से महाराष्ट्र से सटा हुआ भी है। बेंगलूरु महानगर में भी इसका ख़ासा प्रभाव है क्योंकि इस महानगर में बड़ी मात्रा में प्रवासी जनसंख्या है।
हिंदू वोट बैंक पर निर्भरता
इसीलिए आज भी करावली, मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र तथा बेंगलूरु शहर के अलावा शेष कर्नाटक में बीजेपी की लोकप्रियता उतनी अधिक नहीं बन पाई है। कर्नाटक में एक ओर जेडीएस जैसी पार्टियाँ भी सशक्त हैं, जो क्षेत्रीय अस्मिता की वकालत करती हैं, तो दूसरी ओर बीजेपी के ही येदियुरप्पा श्रीरामुलू के अलग दल बनाने से बीजेपी को 2013 में भारी चुनावी घाटा होने के ठोस साक्ष्य उपलब्ध हैं। मगर बीजेपी ने 2014 आते-आते अपने परंपरागत शहरी हिंदू वोट बैंक में विकास के नारे के माध्यम से ग्रामीण, श्रमजीवी, युवाओं का वोट मिलाने का सफल प्रयास भी कर लिया था।
अब यह स्पष्ट है कि 2019 के चुनाव पूरे भारत में बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण के मंच पर लड़ रही है, वहीं विपक्षी क्षेत्रीय दल चाहे वो तृणमूल कांग्रेस हो या द्रमुक, बसपा, सपा, राजद, जेडीएस, नायडू, आप हो, वे संघीय ढाँचे को अपना मंच बनाये हुए हैं।
दोनों ही आइडेंटिटी पॉलिटिक्स यानी पहचान की राजनीति कर रहे हैं। पहचान की राजनीति ऐसी समूहों की वकालत करती है जो जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्रीयता, संस्कृति, भाषा, क्षेत्र आदि लक्षणों पर आधारित हो। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि यदि बीजेपी राष्ट्रीयता या धर्म की आइडेंटिटी आगे लाएगी तो विपक्ष भी क्षेत्रीयता या जाति के नाम पर जवाबी आइडेंटिटी का समूह बनाएगा। दोनों ही सफल होंगी क्योंकि वोटर इस या उस विचारधारा से अपने आप को निकट पायेगा। औसत नागरिक हिंदू-हिन्दुस्तानी होने के साथ-साथ किसी क्षेत्र-जाति-समूह का भी तो सदस्य होता है। कौन किस हद तक सफल होगा यह तो चुनाव परिणाम ही बताएँगे।
बीजेपी की स्थिति
कर्नाटक का चुनावी नब्ज़ इसी परिप्रेक्ष्य से टटोला जाना चाहिए। बीजेपी नेतृत्व को यह पता है कि लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत में उसे 2014 में ही अधिकतम सीटें मिल चुकी हैं और अब यह 2019 में बढ़ेंगी नहीं। 2014 लोकसभा में बीजेपी को कर्नाटक की 28 में से जो 17 सीटें मिली थीं, उसमें से 12 सीटों पर उसे 50% से अधिक मत प्राप्त हुए थे। बीजेपी की ये सीटें मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र में 4, करावली में 4, बेंगलूरु में 3 तथा बेल्लारी में 1 सीट मिलीं। 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इन्हीं सीटों पर कुछ घाटा भी हुआ। मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र में औसत 5%, करावली में 7%, बेंगलूरु में 13% का उसे नुक़सान हुआ। बाक़ी की 16 सीटों पर कांग्रेस+जेडीएस को 2014 में भी 50% से अधिक मत मिले थे, और 2018 के विधानसभा चुनावों में भी।
तो ताज़ा गठबंधन के समीकरण में बीजेपी 2014 में 50% से अधिक मत प्राप्त कर चुकी उन 12 सीटों पर अपना बेहतरीन दाँव चलेगी, उसमें भी ख़ासकर उनमें, जिनपर उसे 2018 में बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा था। जैसे बेंगलूरु दक्षिण, जहाँ 2014 में कर्नाटक के सर्वोच्च 57% से वह 2018 में 48% पर फिसल गई। उसने फ़िलहाल युवा तेजतर्रार मुँहफट प्रत्याशी तेजस्वी सूर्या को उतारा है ताकि और ज़्यादा ध्रुवीकरण किया जा सके जिससे कि 2018 में खोये मत पुनः हासिल हो जाएँ।
जेडीएस से वोट छिटकेगा
राष्ट्रीय चुनावों में जेडीएस के भी कुछ वोट पारम्परिक रूप से बीजेपी के पक्ष में खिसकते हैं, जो इस बार कुछ अधिक खिसकेंगे क्योंकि जेडीएस का टिकट बँटवारा परिवारवाद की काली छाया में हुआ है। जेडीएस के प्रभाव में आने वाले क्षेत्रों में चूँकि उसका प्रमुख सामना कांग्रेस से है, अतः परिवारवाद से नाराज़ जेडीएस वोटर का एक बड़ा समूह यदि गठबंधन के बावजूद कांग्रेस के बदले बीजेपी को वोट दे दे तो कोई ख़ास आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
ध्रुवीकरण की नीति कितनी कारगर?
अब यह चुनाव ही बताएगा कि कर्नाटक की जनता में बीजेपी की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति क्या उतनी पैठ बना पाई है जितनी उत्तर प्रदेश में, क्योंकि दक्षिण भारत की द्रविड़ संस्कृति अपने आप में पूर्ण है, इसलिए उसे हिंदू ख़तरे में नहीं दिखता। परम्परागत रूप से ही, दक्षिण भारतीय राज्यों की सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की हों, नागरिकों की सुरक्षा एवं न्याय पर अधिक जोर देती आईं हैं जिससे कि प्रशासन अपेक्षाकृत कुशल बना रहता है और अपराध कम होते हैं। यही कारण है कि शिक्षा, रोज़गार, महिला सुरक्षा, अर्थव्यवस्था आदि अधिक सुदृढ़ होने के चलते समाज में परेशानियों के मुक़ाबले अधिक ख़ुशहाली रहती है। इससे सांप्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों को हवा भी कम मिलती रही है।
गठबंधन की स्थिति
तो लब्बोलुआब यह दिखता है कि उन 12 सीटों पर जहाँ 2014 में बीजेपी को 50% से अधिक मत मिले थे, वहाँ बीजेपी का परचम फिर लहरा सकता है। क़रीब 6 से 8 अन्य सीटों पर उसे जेडीएस के नाराज़ वोटर से लाभ मिलने की संभावना भी बलवती है। बाक़ी की 8 से 10 सीटों पर क्योंकि 2014 तथा 2018 दोनों के गणित, विपक्षी गठबंधन के हिस्से में 50% से अधिक मतों का रहा है, तो वहाँ गठबंधन के जीत दर्ज करने की स्थिति अधिक अनुकूल प्रतीत हो रही है।
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