झारखंड में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को जनता ने नकार दिया है, यह अब लगभग साफ़ हो गया है। अब तक के रुझानों के मुताबिक़, बीजेपी सिर्फ 24 सीटों पर आगे चल रही है, उसकी पूर्व सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन यानी आजसू 4 सीटों पर आगे है। दूसरी ओर, जेएमएम की अगुआई वाले महागठबंधन को अब तक 46 सीटों पर बढ़त हासिल है।
उग्र हिन्दुत्व की हार?
झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने अपनी पार्टी की हार स्वीकार कर ली है। वे खुद भी जमशेदपुर ईस्ट से निर्दलीय उम्मीदवार और अपने पूर्व सहयोगी सरयू राय से बहुत ही पीछे चल रहे हैं और उन्होंने उस चुनाव में अपनी निजी हार भी मान ली है। रघुवर दास ने पार्टी के खराब प्रदर्शन पर कहा है, 'यह मेरी हार है, पार्टी की हार नहीं है. मैंने झारखंड के लिए ईमानदारी से काम किया है। मैं नतीजों का स्वागत करता हूँ।'.
इसे क्या माना जाए? क्या उग्र हिन्दुत्व की हार है? क्या यह मोदी-शाह की आक्रामक राजनीति की हार है? क्या यह बताता है कि बीजेपी लोगों से जुड़े मुद्दे नहीं उठा पाई? या यह मान लिया जाए कि जुगाड़ कर कहीं भी जीत लेने का अमित शाह का फ़ार्मूला बेकार हो गया।
दरअसल, यह हार इन सभी सवालों के जवाब देती है। इस हार से यह तो साबित होता ही है कि बीजेपी ढलान पर है और लोग भावना भड़का कर वोट पाने की उसकी विभाजनकारी नीदियों से ऊब चुके हैं। इससे यह भी साबित होता है कि मोदी-शाह की जोड़ी अजेय नहीं है और यह भी कि यदि विपक्ष एकजुट हो कर लड़े तो बीजेपी को उसके गढ़ में भी हराया जा सकता है।
नहीं चला राम मंदिर का कार्ड
चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी ने झारखंड जैसे राज्य में राम मंदिर का मुद्दा क्यों उठाया, यह समझ से परे है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने मंच से कहा कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तभी आया जब मोदी सरकार केंद्र में थी और उसने इस पर तेज़ी बरतने को कहा। उन्होंने कांग्रेस को घेरने की कोशिश करते हुए कहा कि वह राम मंदिर के ख़िलाफ़ थी और उसने अपनी सत्ता में राम मंदिर नहीं ही बनने दिया।
हालाँकि राम मंदिर पर ही पूरा प्रचार केंद्रित रहा, यह नहीं कहा जा सकता है। पर अमित शाह ने इस पर कांग्रेस को पीछे धकेलने और श्रेय लूटने की रणनीति अपनाई, इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता।
आग लगाने वालों की पहचान कपड़ों से?
राम मंदिर ही नहीं, उग्र हिन्दुत्व की पूरी अवधारणा को ही लोगों ने सिरे से नकार दिया। न तो सावरकर की वहाँ कोई अपील है न ही वहाँ हिन्दू-मुसलमान विद्वेष का इतिहास रहा है। पर पार्टी का तो पूरा ज़ोर इसी पर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार का आलम यह था कि उन्होंने खुले आम मंच से कहा, ‘ये जो आग लगा रहे हैं, ये जो तसवीरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं, उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।’
मोदी ने बिना नाम लिए मुसलमानोें के ख़िलाफ़ वातावरण बनाने की कोशिश उस राज्य में की, जहाँ उनके एक पूर्व मंत्री ने गोमांस रखने के शक में हत्या करने वालों के ज़मानत पर छूटने पर मालाओं से लाद दिया था।
नहीं चला 370, एनआरसी
यह भी साफ़ है कि लोगों ने जन भावनाओं को उभार कर वोट हथियाने की बीजेपी की रणनीति को खारिज कर दिया है। झारखंड के चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ने कश्मीर और नैशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) के मुद्दों को भुनाने की कोशिश की। उन्हे लगा था कि महाराष्ट्र की तरह जनता इन बातों को सुनेगी। केंद्रीय नेतृत्व तो दूर की बात, पार्टी का राज्य नेतृत्व भी यह नहीं समझ सका कि खूंटी या राजखरसाँवा के लोगों को इससे अधिक मतलब नहीं है कि कश्मीर की किस धारा को आपने बदल दिया या ख़त्म कर दिया। इसमें भी उनकी अधिक दिलचस्पी नहीं है कि आपने जोरहाट या डिब्रूगढ़ में रहने वाले किसी आदमी की पहचान कर ली है जो घुसपैठिया है और जिसे आप बाहर भेजने की तैयारी कर रहे हैं।
ज़मीनी सच के बजाय हवाई बातें?
बीजेपी ने जल-ज़मीन-जंगल से जुड़े मुद्दे नहीं उठाए, उसने यह बताने की कोशिश नहीं कि राँची के पास बंद पड़ा कौन सा कारखाना खुल जाएगा या नोआमुंडी के किस खदान में और कितने लोगों को नौकरी मिलेगी।
बीजेपी का प्रचार अभियान इस कदर ज़मीन से कटा हुआ था कि पार्टी ने वहाँ भी सावरकर की बात की, वहाँ भी उग्र राष्ट्रवाद को परोसने की कोशिश की, जबकि झारखंड के लोगों का मिजाज इससे मेल नहीं खाता है।
पार्टी ने शेष भारत की तरह झारखंड में भी विभाजनकारी प्रचार अभियान का सहारा लेने की कोशिश की थी। नागरिकता संशोधन क़ानून भी ऐसा कुछ नहीं था, जिससे झारखंड की जनता सीधे जुड़ती हो। कथित रूप से बांग्लादेश से आए लोगों की तादाद झारखंड में नगण्य ही होगी, पर अमित शाह का ज़ोर इसी पर था।
बीजेपी विभाजनकारी नीतियों और भावनाओं को उभार कर वोट पाने की जुगत की रणनीति से इस कदर प्रभावित थी कि उसने सोशल इंजीनियरिंग की भी अनदेखी कर दी और अपने पूर्व सहयोगी आजसू को महज कुछ सीटों के लिए अलग हो जाने दिया। आजसू से सीट बँटवारे पर ही बात टूटी थी और आदिवासी वोट बीजेपी को नहीं मिले। शायद बीजेपी को यह उम्मीद थी कि वह शेष भारत के मुद्दे ही यहाँ भी उठा कर उनके वोट भी हासिल कर लेगी। पर ऐसा हो न सका।
बीजेपी इस बार अति आत्मविश्वास में सोशल इंजीनियरिंग से भी पीछे रह गई। पिछली बार उसके साथ आजसू था, जिस वजह से पार्टी को आदिवासियों के वोट मिले थे। लेकिन इस बार टिकट बँटवारे पर बात बिगड़ गई, आजसू अलग हो गया। भले ही उसे 3 सीटें ही मिलें, पर आदिवासी वोट तो बीजेपी से बिदक ही गया।
हरियाणा, महाराष्ट्र और उसके बाद झारखंड में सरकार बनाने में पार्टी की नाकामी का सबसे तात्कालिक और बुरा असर दिल्ली पर पड़ेगा। दिल्ली चुनाव वैसे भी बेहद कठिन है, टक्कर तो है, पर बढ़त आम आदमी पार्टी को हासिल है।
दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल 20 फरवरी, 2020 को ख़त्म हो रहा है। फरवरी के पहले हफ़्ते तक चुनाव कराने ही होंगे। नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित कर चुनाव प्रचार अभियान का विधिवत उद्घाटन कर दिया। क्या उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है? अभी यह कहना शायद जल्दबाजी होगी।
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