बीजेपी के नेतृत्व वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही ऐसे संकेत उभर रहे हैं कि वह न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग और सीबीआई जैसे संस्थानों की स्वायत्तता को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है। अब रिजर्व बैंक (आरबीआई) के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप की बात भी सामने आई है। आइए, जानते हैं कि वे कौनसे मुद्दे हैं जिनपर सरकार और बैंक के अधिकारियों में मतभेद हैं और वे कौनसे कारण है जिन्होंने दोनों के बीच दूरियाँ पैदा कर दीं।
पीआरबी के गठन को लेकर विवाद
ग़ौरतलब है कि हाल ही में केंद्र सरकार की एक समिति ने भुगतान से संबंधित मुद्दों के लिए भुगतान नियामक बोर्ड (पीआरबी) के गठन का सुझाव दिया था। आरबीआई ने समिति की कुछ सिफारिशों के ख़िलाफ़ असहमति नोट (डिसेंट नोट) सार्वजनिक कर आपत्ति जताई थी। रिजर्व बैंक ने कहा था कि भुगतान प्रणाली का नियमन केंद्रीय बैंक द्वारा किया जाता है और इसका नियंत्रण उसके पास ही रहना चाहिए। आरबीआई का कहना है कि केन्द्रीय बैंक के गवर्नर को पीआरबी का मुखिया बनाया जाना चाहिए। डिजिटल पेमेंट के बारे में बैंक ने कहा था कि दुनियाभर में पेमेंट सिस्टम केन्द्रीय बैंकों के अधीन कार्य करते हैं और क्रेडिट और डेबिट कार्ड्स बैंक ही जारी करते हैं। ऐसे में इन पर दोहरी नियमन की प्रणाली सही नहीं है।ब्याज दरों में कटौती करने से इनकार
नोटबंदी के बाद से ही सरकार और आरबीआई के रिश्तों में कड़वाहट आनी शुरू हो गई थी। यह दरार और चौड़ी तब हुई जब आरबीआई ने ब्याज दरों में कटौती करने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, बैंक ने ब्याज दरें घटाने के बजाय उनको और बढ़ा दिया।एनपीए पर बढ़ी रार
इसके बाद 12 फरवरी 2018 को आरबीआई ने नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) यानी फँसे हुए क़र्ज़ और लोन रीस्ट्रक्चरिंग के नए नियम को लेकर सर्क्युलर जारी कर दिया। केन्द्रीय बैंक के इस फ़ैसले से सरकार की नाराज़गी बढ़ गई। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 2017-18 में बैंकिंग क्षेत्र का एनपीए 9.61 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है।पीएनबी घोटाले से बिगड़े हालात
इसके बाद नीरव मोदी का पीएनबी घोटाला सामने आया जिसने सरकार के गुस्से को और बढ़ा दिया। केनद्र सरकार इसे लेकर आरबीआई पर बिफर पड़ी कि उसने ठीक ढंग से इसकी निगरानी नहीं की। रिश्ते तब और ख़राब हुए जब आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी सरकारी बैंकों पर नियन्त्रण के लिए केंद्र सरकार से और अधिकार देने की माँग की। इसके अलावा मध्यम तथा छोटे उद्योगों को एक और मौक़ा देने को लेकर भी आरबीआई और केन्द्र सरकार के बीच विवाद है। नोटबंदी के बाद ऐसे अधिकतर उद्योगों की वित्तीय हालत ख़राब है।एनबीएफसी में नकदी की किल्लत
IL&FS समूह की कंपनियों के डिफ़ॉल्टर होने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) क्षेत्र में नकदी की भारी क़िल्लत सामने आई है। इसे दूर करने के लिए सरकार आरबीआई पर लगातार दबाव बना रही है लेकिन केंद्रीय बैंक ने इस मामले में कोई भी क़दम उठाने से इनकार कर दिया है। इससे भी सरकार की नाराज़गी बढ़ गई है।मोर को हटाये जाने से बैंक नाराज़
आरबीआई के केन्द्रीय बोर्ड के सदस्य नचिकेत मोर को कार्यकाल पूरा होने से दो साल पहले ही बिना सूचना दिए बोर्ड से हटा दिया गया। मोर को हटाए जाने से आरबीआई की नाराज़गी और बढ़ गई। नचिकेत मोर ने केन्द्रीय बैंक से सरकार द्वारा अधिक लाभांश माँगे जाने का विरोध किया था। माना जाता है कि विरोध करने के कारण ही मोर को बोर्ड से हटा दिया गया।जेटली के बयान ने आग में डाला घी
वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान ने भी इस लड़ाई में आग में घी डालने जैसा काम किया है। जेटली ने 26 अक्टूबर को दिए एक बयान में कहा कि देश किसी भी संस्था या सरकार से बड़ा होता है और किसी को भी चुनी हुई सरकार को कमज़ोर करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि केन्द्र हो या राज्य, जवाबदेही अंतत: चुनी हुईं संस्थाओं की ही होती है और जो ग़ैर-जवाबदेह हैं, उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। वित्त मंत्री का यह बयान ऐसे समय में आया है जब सीबीआई को लेकर तो विवाद चल ही रहा है। आरबीआई के डेप्युटी गर्वनर ने भी एक बार फिर बैंक की स्वायत्तता को लेकर सरकार पर सवाल उठाए हैं।आचार्य के बयान के बाद तेज़ हुई लड़ाई
आरबीआई के डेप्युटी गवर्नर विरल आचार्य के ताज़ा बयान के बाद यह लड़ाई और तेज़ हो गई है। आचार्य ने कहा है कि केंद्र सरकार की ओर से बैंक के काम में दख़ल देना ख़तरनाक साबित हो सकता है। आचार्य के बयान के बाद यह साफ़ है कि सरकार के दख़ल के कारण आरबीआई नाराज़ है। कुछ समय पहले आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने पीएनबी में हुए बैंक घोटाले को लेकर दुख, गुस्सा और अफ़सोस ज़ाहिर किया था और इसे देश के भविष्य के साथ लूट बताया था। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा था कि उन्हें नोटबंदी के कदम की कोई जानकारी नहीं थी और वे कभी भी इसके पक्ष में नहीं रहे।सीबीआई के बाद अब आरबीआई का विवाद बहुत बड़ा हो चुका है। अख़बार, टीवी से लेकर सोशल मीडिया पर लोग इसे लेकर अपनी बात कह रहे हैं। तमाम विपक्षी राजनीतिक दल भी सरकार पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि वह लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर चुन-चुनकर हमला कर रही है। उनके आरोप तब सच प्रतीत होते हैं जब देश की इन महत्वपूर्ण संस्थाओं के वरिष्ठ अधिकारी सरकार पर उसके कामकाज़ में दख़ल देने का आरोप लगाते हैं। ऐसे में सवाल यही है कि लोकतान्त्रिक संस्थानों के कामकाज़ में दख़ल देने से कैसे लोकतंत्र बचेगा, जिसे बचाने की बात कहकर ही मोदी सरकार सत्ता में आई थी।
अपनी राय बतायें