प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच होने वाली बातचीत से क्या दोनों देशों के बीच विश्वास बढ़ेगा और रिश्ते मजबूत होंगे? क्या भारत अपना निर्यात बढ़ाने के लिए कोई रियायत हासिल कर पाएगा? क्या कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर चीन भारत का साथ न दे तो कम से कम शांत हो बैठ जाएगा? इन सवालों के जवाब तो बातचीत के बाद ही निकल पाएंगे, पर दोनों देशों के बीच कश्मीर की वजह से बनी तनातनी कम होने के आसार हैं।
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विश्वास बढ़ाने के उपाय!
लोगों की निगाहें इस पर टिकी हुई हैं कि क्या दोनों देशों के बीच विश्वास बढ़ाने के उपायों पर चर्चा होगी और क्या फ़ैसले लिए जाएंगे। दोनों देशों के बीच विश्वास बढ़ाने के उपायों पर अहम फ़ैसले 1993 और 1995 में लिए गए। तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री ली पिंग एक प्रतिनिधिमंडल के सथ 1993 में भारत आए और दोनों देशों की एक्सपर्ट कमिटी की बैठकें हुईं। इसमें तय किया गया कि सीमा से जुड़े मतभेदों का निपटारा करने के लिए कुछ उपाय किए जाएंगे और ऐसे कदम उठाए जाएंगे कि दोनों देश एक दूसरे पर अधिक भरोसा कर सकें और ग़लतफहमी न रहे।इसके बाद 1995 में यह तय हुआ था कि दोनों देशों को बाँटने वाली मैकमोहन लाइन के निर्धारण के लिए एक समिति बनेगी। यह फ़ैसला लिया गया था कि सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों के अफ़सर नियमित बैठकें करेंगे। किसी भी तरह का संकट पैदा होने पर तुरन्त मिलेंगे और सीमा पर स्थिति जस की तस बनाए रखेंगे। चीन ने यह कहा था कि कश्मीर पर भारत को पाकिस्तान से बात करनी चाहिए और समस्या का निपटारा करना चाहिए। चीन इस पर राजी हो गया था कि वह कश्मीर की आज़ादी का समर्थन नहीं करेगा।
फ़िलहाल सीमा शांत है। इस बार जब विश्वास बढ़ाने के उपायों की बात की जा रही है कि तो समझा जा रहा है कि डोकलाम जैसी वारदात फिर न हो, इसके उपाय ढूंढे जाएंगे। इस पर सहमति बन सकती है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल) पर किसी तरह की गड़बड़ी हो तो तुरन्त दोनों देशों के अधिकारी इस पर बात करें, ऐसी व्यवस्था करने पर निर्णय हो सकता है।
कश्मीर
प्रधानमंत्री ख़ुद कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाएंगे, पर यदि चीनी राष्ट्रपति ने यह मामला छेड़ा तो भारत उन्हें विस्तार से बताएगा कि कश्मीर पर ताज़ा फैसले की क्या ज़रूरत थी। मोदी शी जिनपिंग को यह भी बताने की कोशिश करेंगे कि इस फ़ैसले से चीन को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि इससे सीमा पर कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है।एफ़एटीएफ़
दोनों देशों के नेताओं के बीच होने वाली बातचीत में फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (एफ़एटीएफ़) का मुद्दा भी उठ सकता है। आतंकवाद को पैसे पहुँचने से रोकने के उपाय करने और मनी लॉन्डरिंग रोकने के लिए बनी इस समिति की अध्यक्षता चीन के पास है। चीनी प्रतिनिधि शियांगमिन लिउ इसके मौजूदा प्रमुख हैं।पाकिस्तान एफ़एटीएफ़ की ग्रे लिस्ट में है। वह इसके सुझाए हुए 27 उपायों में से 20 लागू नहीं कर पाया है। उसे एशिया प्रशांत की काली सूची में डाल दिया गया है। उसे कई बार समय बढ़ाया गया है, पर वह एफ़एटीएफ़ की सिफ़ारिशों को लागू करने में अब तक नाकाम है।
भारत चीन पर दबाव बढ़ा सकता है कि वह पाकिस्तान को एफ़एटीएफ़ की सिफ़ारिशें लागू करने के लिए कहे, उसे बहुत समय दिया जा चुका है, अब उस पर कार्रवाई हो। कार्रवाई का मतलब होगा पाकिस्तान को काली सूची में डालना।
जब तक चीन प्रमुख है, एफ़एटीएफ़ ऐसा नहीं करेगा। पाकिस्तान की आर्थिक नाकेबंदी होने से चीन को भी नुक़सान होगा क्योंकि उसने पाकिस्तान में दसियों परियोजनाओं में अरबों डॉलर का निवेश कर रखा है।
ट्रेड गैप
व्यापार पर दोनों देशों के बीच अधिक और गंभीर बात हो, इसकी संभावना है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि दोतरफा व्यापार में व्यापार असंतुलन है और भाारत बहुत कम निर्यात कर पाता है, उसे आयात कई गुणे ज़्यादा करना होता है। दोनों देशों के बीच बीते साल तकरीबन 95.54 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, जिसमें भारत सिर्फ 18.84 अरब डॉलर का निर्यात कर सका, यानी ट्रेड गैप 76 अरब डॉलर का है।भारत ट्रेड गैप कम करने के उपायों पर बात करेगा और चीन से कहेगा कि वह अधिक चीजें भारत से खरीदे। चीन की नज़र 5-जी पर टिकी है। वह चाहता है कि चीनी कंपनी ह्वाबे को यह काम मिल जाए। इसलिए वह दोनों देशों के बीच सूचना व दूरसंचार में अधिक प्रौद्योगिक सहयोग की बात करेगा।
यह स्वाभाविक ही है, वैसे भी ह्वाबे चीन की सरकारी कंपनी है। लेकिन भारत इसका इस्तेमाल अमेरिका पर दबाव बढ़ाने के लिए करता रहता है। इसलिए भारत कम से कम अभी तो खुल कर कोई आश्वासन नहीं देगा।
इन बैठकों से किसी चमत्कारिक नतीजे की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। चीन न तो कश्मीर पर अपनी नीति बदलेगा, न व्यापार में कोई बड़ी रियायत देगा, एफ़एटीएफ़ में भी वह पाकिस्तान का बचाव ही करेगा। इसी तरह भारत भी चीन को 5-जी में कोई रियायत नहीं देने जा रहा है न ही लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल पर कोई किसी को किसी तरह की छूट दे सकता है।
शी जिनपिंग की यात्रा की कामयाबी इसी में है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस मुद्दे को उठाने से जो तल्ख़ी पैदा हो गई थी, वह किसी तरह दूर हो जाए। शी जिनपिंग दिल्ली को यह आश्वस्त करने में कामयाब हों कि चीन फिर ऐसा नहीं करेगा, यही काफ़ी होगा।
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