क्या आपको याद है कि दिल्ली पुलिस हाल ही में राहुल गांधी को नोटिस देने उनके घर तक पहुँच गई थी। वह नोटिस इसलिए था कि उन्होंने एक भाषण में इतना भर कहा था कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दुष्कर्म पीड़िताएँ मिली थीं और उनसे अपना दुखड़ा सुनाया था। दिल्ली पुलिस का वह नोटिस इसलिए था क्योंकि उसने राहुल के उस भाषण का स्वत: संज्ञान लिया था। लेकिन इधर, देश के लिए गोल्ड मेडल लाने वाली महिला पहलवान कथित यौन उत्पीड़न करने वाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग कर रही हैं, लेकिन दिल्ली पुलिस पर 'मौन' रहने का आरोप लग रहा है। अब इसी दिल्ली पुलिस पर शिकायत करने वाली महिला पहलवानों और कार्रवाई की मांग करने वाले अन्य पहलवानों के साथ मारपीट करने का आरोप लगा है।
तो सवाल है कि आख़िर दिल्ली पुलिस का इस मामले में कैसा रवैया है? इस मामले में क़ानून क्या कहता है और बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ कार्रवाई उस तरह से क्यों नहीं हो पा रही है जिस तरह की पहलवान चाहते हैं? इस मामले में एफ़आईआर हुई भी तो सुप्रीम कोर्ट के दखल और फटकार के बाद क्यों?
दरअसल, देश की 7 नामी महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं। महिला पहलवानों ने पहले दिल्ली पुलिस से एफआईआर का अनुरोध किया था लेकिन उसने जाँच के नाम पर मामले को लटकाए रखा था। प्रदर्शन करने वाले पहलवानों की मांग है कि बृजभूषण शरण सिंह को कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद से हटाकर जेल भेजा जाए।
लेकिन क्या पहलवानों की यह मांग पूरी होगी और क्यों आख़िर बृजभूषण शरण सिंह तक पुलिस पहुँच भी नहीं पा रही है? दूसरे ऐसे मामलों में क्यों पुलिस त्वरित कार्रवाई कर बैठती है?
इस मामले को पूरा समझने के लिए पहले यह जान लें कि बृजभूषण शरण सिंह पर आरोप क्या हैं। उन पर सेक्सुअल हैरेसमेंट यानी यौन उत्पीड़न का आरोप लगा है। इसका आम तौर पर मतलब होता है कि किसी भी तरह की यौन गतिविधि जिसमें सहमति न हो। यह इच्छा के विरुद्ध की गई यौन गतिविधि होती है। इसमें किसी भी तरह के शारीरिक संपर्क बनाए जाने को शामिल किया जाता है।
ऐसे मामले अधिकतर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के आते हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न कामकाजी महिलाओं के लिए एक आम समस्या है। देश में हर दिन किसी न किसी दफ्तर में कोई न कोई महिला इस समस्या से सामना करती है।
सर्वे में यह बात सामने आती रही है कि शिकायत न कराने का मुख्य कारण कानूनी प्रक्रिया में विश्वास की कमी, अपने करियर के प्रति चिंता और आरोपियों को कोई सजा नहीं मिल पाना है। इसी वजह से ऐसे मामले ज़्यादा सामने आते नहीं हैं।
इसी बात को ध्यान में रखकर दो अहम प्रावधान किए गए। एक है- विशाखा जजमेंट। और दूसरा- यौन उत्पीड़न अधिनियम 2013 है जिसका उद्देश्य इसकी रोकथाम, निषेध और निवारण करना है।
क्या था विशाखा जजमेंट?
- एक महिला ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों को लेकर एक याचिका दायर की थी। इसी पर सुनवाई करते हुए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा जजमेंट के तहत गाइडलाइंस बनाई थी। यह तमाम दफ्तरों में लागू है। इसमें अनुशासनात्मक से लेकर आपराधिक कार्रवाई किए जाने की बात कही गई है।
- यौन उत्पीड़न को रोकना नियोक्ता या अन्य जिम्मेदार अधिकारी की ज़िम्मेदारी है।
- यौन उत्पीड़न के दायरे में शारीरिक छेड़छाड़, छुना, सेक्सुअल फेवर की डिमांड या आग्रह करना, महिला सहकर्मी को पोर्न दिखाना, अन्य तरह से आपत्तिजनक व्यवहार करना या फिर इशारा करना आता है।
- कोई ऐसी गतिविधि जो आईपीसी के तहत अपराध है तो नियोक्ता की ज़िम्मेदारी है कि वह इस मामले में कार्रवाई करते हुए संबंधित अथॉरिटी को शिकायत करे।
- यह सुनिश्चित किया जाए कि पीड़िता अपने दफ्तर में किसी भी तरह से पीड़ित-शोषित नहीं होगी।
- इस तरह की कोई भी हरकत दुर्व्यवहार के दायरे में होगा और इसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान है।
- प्रत्येक दफ्तर में एक शिकायत समिति होगी जिसकी प्रमुख महिला होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि कमिटी में महिलाओं की संख्या आधे से कम न हो। साथ ही साल भर में आई शिकायतों और कार्रवाई के बारे में सरकार को रिपोर्ट करना होगा।
- अगर कोई ऐसी हरकत जो आईपीसी के तहत अपराध है, तो उस मामले में शिकायत के बाद केस दर्ज किया जाए। कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ आईपीसी की संबंधित धाराओं के तहत कार्रवाई हो। साथ ही उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की जाए।
यौन उत्पीड़न अधिनियम 2013
विशाखा दिशा-निर्देशों के बावजूद ऐसे मामले नहीं रुके और क़ानून में भी उसी अनुसार संशोधन किए जाते रहे। ऐसा ही क़ानून यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 के रूप में सामने आया। इसमें दोषी को कारावास या आर्थिक दंड या दोनों मिल सकती है। यह एक जमानती, संज्ञेय अपराध है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।
इसको आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराध माना गया है। यह स्त्री का लज्जा भंग करने से जुड़ा है और इसका मतलब है उस पर किया गया हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करना। इसके तहत आरोपी को 1 साल के लिए कारावास, जो 5 वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माने की सजा का प्रावधान बताया गया है। आपराधिक क़ानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा इसमें धारा 354 की कई उपधाराएँ तैयार करके 354 ए, 354 बी, 354 सी, 354 डी जोड़ी गयी हैं।
जो भी मामला संज्ञेय है, उसमें पुलिस पीड़िता की शिकायत पर या फिर खुद संज्ञान लेकर केस दर्ज कर सकती है। लेकिन पीड़िता का बयान ऐसे मामले में अहम साक्ष्य होता है।
तो सवाल है कि भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर क्या कार्रवाई हुई? इस सवाल का जवाब यह है कि इस मामले में पहलवान लंबे समय से प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्होंने महीनों पहले प्रदर्शन शुरू किया था, लेकिन तब पहलवानों को कमेटी बनाने, जाँच करने और कार्रवाई करने की बात कहकर शांत कर दिया गया था। तय समय में समिति की रिपोर्ट नहीं आई और फिर इन पहलवानों ने कमेटी और रिपोर्ट को लेकर भी कई आरोप लगाए। बृजभूषण शरण सिंह कुश्ती संघ के अध्यक्ष भी बने रहे। कार्रवाई भी नहीं हुई तो पहलवानों ने फिर से प्रदर्शन शुरू किया। हालाँकि बृजभूषण सिंह इन आरोपों को खारिज करते रहे हैं और कहते हैं कि वह क़ानून का पालन करने वाले व्यक्ति हैं।
प्रदर्शन करने वाले पहलवानों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। अदालत ने एफ़आईआर दर्ज करने को कहा और जमकर फटकार लगाई। इसकी अगली तारीख़ तक भी दिल्ली पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज नहीं की थी। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद दिल्ली पुलिस ने आख़िरकार एफ़आईआर दर्ज की। इसमें से एक एफआईआर तो एक नाबालिग खिलाड़ी की यौन उत्पीड़न की शिकायत पर है, जो कड़े यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण यानी POCSO अधिनियम के तहत दर्ज की गई है। इसमें जमानत की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
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