कवि-ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य को लव-कुश ने राम के दरबार में गाया तो राम अत्यंत प्रसन्न हुए और उनसे पूछा कि क्या पुरस्कार चाहिए!
सीता के बिना राम की मूर्ति कैसे बन सकती है?
- धर्म
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- 4 Dec, 2018
राम के भक्त समय-समय पर पत्नी निर्वासक, कृष्ण के भक्त दूसरों की बीवियाँ चुराने वाले और शिव के भक्त अघोरपंथी हुए हैं।
-राम मनोहर लोहिया

लव और कुश ने जवाब दिया कि वे प्रसिद्ध रानी सीता से मिलना चाहते हैं, जिनको राम ने रावण के चंगुल से छुड़ाया था। राम ने उनको अपने हाथ में लेकर एक गुड़िया दिखाई - सोने की बनी हुई एक गुड़िया।
‘मेरे पास अब यही सीता रह गई हैं।’ देख-सुन कर लव और कुश को आघात लगा। एक गुड़िया?! लव-कुश ने उनसे बहस की, उचित-अनुचित पर। राम ने उत्तर दिया कि सवाल उचित-अनुचित का नहीं, सवाल नियमों के पालन का है।
तो राम जिस तरह नियमों के पाबंद थे, उनके भक्त भी वैसे ही निकलेंगे न! उनसे इससे अधिक की उम्मीद करना व्यर्थ है। स्त्रियाँ, सत्ता के हाथों गुड़िया ही रह गईं और राम सरीखे मर्यादा पुरुषोत्तम सत्ता तक पहुँचने के साधन। कवि बोधिसत्व ने लिखा है - भक्ति का इतिहास क्रूरता से भरा हैं।
क्रूरता का इतिहास लंबा होता है, दीर्घजीवी भी। सदियाँ लाँघती हुई क्रूरताएँ चली आती हैं और सबसे पहले पीढ़ियों का विवेक नष्ट कर देती हैं। अपनी ही परंपरा को उलट देती है।
यह परंपरा को उलटना ही तो है कि अयोध्या के सरयू तट पर अकेले राम की मूर्ति लगेगी, बिन सीता के। राम से सीता को अलगाना भी रामभक्तों की क्रूरता है ।
देखो न राम, क्या करने जा रहे तुम्हारे अविवेकी भक्तगण! तुमसे सदेह सीता अयोध्या की जनता ने छीन ली और तुम सीता की मूर्ति लेकर जीते रहे। अब तो तुम्हारे नाम पर राजनीति करने वालों ने वह मूर्ति भी छीन ली। अब तुम फिर से अकेले जीने के लिए तैयार रहो। जब अयोध्या में तुम्हारी प्रतिमा बन जाएगी तो तुम छलछलाई आँखों से सरयू का पानी निहारा करोगे। हर रोज़ जल समाधि लोगे, इस क्रूरता और धृष्टता के खिलाफ़। अभिशप्त दांपत्य का दंश तुमसे बेहतर भला कौन जानेगा, जिसे सुख हमेशा छलता रहा! सीता का देशनिकाला आज तक जारी है। भक्तों ने आपके दुखों से कुछ सीखा नहीं। फिर आपको सरयू तट पर अकेले खड़ा कर देंगे। जहाँ अकेले खड़े होकर तुम अपने को जल समाधि लेते स्मरण करते रहोगे। सीता के साथ न ढंग से जी सके, न साथ मरना नसीब हो सका। यह कैसा देवता था जो मनुष्यों से भी बदतर दुख झेलता रहा।
एक बार आपने दिया था सीता को निर्वासन का दंड, दूसरी बार आपके भक्तों ने!
सीता अब तक बनवास पर हैं। वे जंगल से जब-जब लौटीं, घर और देश से निकाली गईं। जंगल की पनाह में रहीं वे हमेशा। सीता-अपहरण और उनकी अग्निपरीक्षा का दंश और धोबी के कहने पर उनका निर्वासन, ये तीन घटनाएँ स्त्री समुदाय के कलेजे में कील की तरह धँसी हैं। जाने कैसे उसके बाद भी स्त्रियाँ राम से प्रेम कर बैठती हैं। मर्यादाएँ, राम बनाती हैं, सीता को निर्वासित करती हैं। सदियों पुराना चलन है। मैं इस पौराणिक क्रूरता के कारण कभी राम से नहीं जुड़ पाई। मज़ाक में जय श्रीराम भी नहीं बोल पाती अगर एक प्रकांड विद्वान यह न बताते कि जय श्रीराम के श्री का अर्थ सीता है।
मैं उस इलाके से हूँ जहाँ स्त्रियाँ लोकगीतों में दुख व्यक्त करती हैं कि सीता जैसी बेटी देना, सीता जैसा भाग्य न देना। जिसके भाग्य में दुख के सिवा कुछ नहीं। (निराला याद आ जाते हैं… दुख ही जीवन की कथा रही।) कुछ गीतों में यह भी गाती हैं कि पश्चिम देश में अपनी बेटी नहीं ब्याहेंगी। सीता के ससुराल से मोह भी है और भय भी है। दुलार भी है और रार भी है। जो नगर मिथिला की बेटी को न सँभाल सका, उसे महल में टिकने न दिया, जिसने रानी होते हुए बनवासियों-सा जीवन जिया, सुख जिसने देखे नहीं, पति सुख भोगा नहीं, सिंगल मदर की भूमिका में रही और अकेले अपने दम अपने दो बेटे बड़े किए, जिसकी छाया हिंदी फिल्मों में बरसों तक दिखती रही (मेरे करण-अर्जुन आएँगे)।