चंपाई सोरेन
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हेमंत सोरेन
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ममता बनर्जी ने हाल ही में आश्चर्य जताया कि आख़िर चुनाव से पहले ही पुलवामा हमला क्यों हुआ? मुझे नहीं मालूम कि वह क्या कहना चाह रही थीं, लेकिन मेरी समझ से उनका इशारा साफ़ था कि यह आतंकवादी हमला अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जिताने के लिए किया गया है।
ममता बनर्जी का आरोप पहली नज़र में ही बेबुनियाद लगता है। वह शायद उस पुलिसिया ढंग से चीज़ों को देख रही हैं जिसके अनुसार किसी वारदात की शुरुआती जाँच में सबसे पहले उसपर शक किया जाता है जिसको उससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा होता हो।
अगर पुलवामा में हुए हमले को हम पुलिसिया दृष्टि से देखें तो सबसे ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी को ही होता नज़र आता है जो हमले के बाद अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद भड़काने में कामयाब हुई है। इस उन्माद का उसे लोकसभा चुनावों में कितना लाभ मिलेगा, अभी से यह कहना मुश्किल है लेकिन हो सकता है, इससे वह बहुमत के थोड़ा और क़रीब आ जाए।
ठीक है। मान लेते हैं कि पुलवामा से बीजेपी को कम या ज़्यादा चुनावी लाभ हो सकता है। लेकिन इसके लिए बीजेपी को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? फ़ुटबॉल में कई बार खिलाड़ी सेल्फ़ गोल कर देते हैं। क्रिकेट मैच में भी कई बार बैट्समैन किसी ख़राब गेंद पर कैच दे देता है। मगर क्या हम यह कह सकते हैं कि उस फ़ुटबॉलर ने जानबूझकर अपनी ही टीम के ख़िलाफ़ गोल किया है या बैट्समैन ने जानबूझकर अपना विकेट गँवाया है? ऐसा सोचना बहुत दूर की कौड़ी होगी, उतनी ही दूर की कौड़ी जितना यह कहना कि जैश ने पुलवामा में धमाका करके बीजेपी के पक्ष में हवा बनवाने की साज़िश की है।
वैसे भी यह सवाल अपनी जगह मज़बूती से खड़ा है कि आख़िर जैश बीजेपी को सत्ता में दुबारा क्यों लाना चाहेगा! इसमें उसका क्या स्वार्थ है? पुलिसिया तरीक़े से ही सवाल करें तो माना कि पुलवामा धमाके से बीजेपी को चुनावी लाभ हो सकता है लेकिन उसको लाभ दिलाने से जैश को क्या लाभ हो सकता है? पाकिस्तानी सेना को क्या लाभ हो सकता है? अब हम आए हैं सही सवाल पर। पुलिस जब जाँच करती है तो हर बिंदु से तफ़तीश करती है। हम भी आगे यही जाँचेंगे कि क्या बीजेपी के सत्ता में आने से जैश या उसके जैसे और संगठनों को कोई लाभ हो सकता है? यदि हाँ तो क्या और कैसे?
पाक सेना और आतंकी नेता जानते हैं कि भारत से युद्ध लड़कर कश्मीर को अलग नहीं करवाया जा सकता। 1947, 1965 और 1971 के तीन युद्ध लड़ने के बाद उसे यह समझ में आ गया है। इसीलिए वे कोशिश कर रहे हैं कि कश्मीर की सरज़मीं में ही लड़ाकों की ऐसी फ़ौज पैदा की जाए जो भारतीय सुरक्षा बलों से मुक़ाबला करे।
जलते हुए कश्मीर की रोशनी से बीजेपी का आँगन भी रोशन होता है, लेकिन इसकी आँच से वह हरगिज़ ख़ुश नहीं हो सकती। जलता हुआ कश्मीर दरअसल बीजेपी की कश्मीर नीति की हार है। कोई भी पिता अपनी अवज्ञाकारी संतान को छड़ी से पीटने के बाद उसकी आँखों में क्षमायाचना और फ़र्माबरदारी देखना चाहता है। वह उसकी आँखों से निकलने वाली चिनगारियों से कभी ख़ुश नहीं हो सकता।
लेकिन बीजेपी करे भी तो क्या करे? प्रधानमंत्री मोदी कितना भी कह दें कि हमारी लड़ाई कश्मीर और कश्मीरियों से नहीं है, लेकिन बीजेपी कश्मीरियों का विश्वास नहीं जीत सकती। इसके दो कारण हैं - एक, वह अपनी उस कश्मीर नीति का परित्याग नहीं कर सकती जो जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की असाधारण परिस्थितियों को सिरे से नकारती है और जिसमें कश्मीर और कश्मीरियों को किसी भी तरह के विशेष दर्ज़े या अधिकार के लिए कोई भी जगह नहीं है। दो, बीजेपी जिस हिंदूवाद-केंद्रित अंधराष्ट्रवादी विचारधारा के सहारे आज यहाँ तक पहुँची है, और जो उसका जीवन-तत्व भी है, उससे वह कभी मुक्त हो भी नहीं सकती। इन दोनों कारणों से कश्मीरी मुसलमान कभी भी बीजेपी का भरोसा नहीं कर सकते, न ही कर सकेंगे।
लेकिन कश्मीर के जलने से और वहाँ से उठने वाली चीखों से भारत और भारतीयों का क्या फ़ायदा है? तपते हुए माथे पर ठंडे पानी की पट्टी लगाने के बजाय हथौड़े बरसाने से भारत माता का क्या फ़ायदा है?
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