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केंद्र सरकार (फाइल फोटो)

केंद्र दोषी नेताओं पर पूरी ज़िंदगी प्रतिबंध लगाने का विरोध क्यों कर रहा है?

गंभीर अपराध के दोषी नेताओं को क्या कभी राजनीति में आने देना चाहिए, ख़ासकर तब जब हत्या, दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराध का मामला हो? वैसे, सामान्य अपराध के मामले में आजीवन प्रतिबंध को कठोर कहा जाता रहा है। तो सवाल है कि सरकार का इस पर क्या रुख है?

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध कठोर होगा। हालाँकि, इसने गंभीर और सामान्य अपराध में फर्क साफ़ नहीं किया है। फ़िलहाल, आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए नेताओं पर छह साल की अयोग्यता का प्रावधान है। केंद्र ने कहा है कि यह प्रावधान पर्याप्त है। केंद्र ने एक हलफनामा दायर कर सुप्रीम कोर्ट से यह बात कही है। वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका पर केंद्र ने यह जवाब दिया है। याचिका में देश में सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे की मांग भी की गई है। 

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से क्या-क्या कहा है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर गंभीर अपराध को लेकर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार का क्या मानना है। 

राजनीति के अपराधिकरण रोकने के लिए लंबे समय से इस पर बहस होती रही है। राजनीति में अपराधियों को रोकने की मांग करने वाली एक याचिका पर दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर अपराध को लेकर टिप्पणी की थी। जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा था कि सबसे पहले केंद्र को गंभीर अपराधों की पहचान करने की ज़रूरत है। तब अदालत ने कहा था कि गंभीर अपराध की परिभाषा तय होनी चाहिए। यह मामला चुनाव आयोग में भी उठते रहा है और चुनाव सुधार के लिए जुटे रहे एडीआर जैसे गैर सरकारी संगठन भी इस मामले को उठाते रहे हैं।

चुनाव आयोग ने पहले सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि उसने राजनीति से अपराधीकरण ख़त्म करने के लिए सक्रियता से कदम उठाए हैं और कुछ सिफारिशें भी की हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में आयोग ने दो साल पहले कहा था कि उसने अपने 'प्रस्तावित चुनावी सुधार, 2016' में अपनी 2004 की सिफारिश को दोहराया था। इसने कहा था कि यदि किसी व्यक्ति पर कम से कम पाँच साल के कारावास के प्रावधान वाले संज्ञेय अपराधों का आरोप लगाया गया हो, आरोप तय किए गए हों तो उन्हें चुनाव लड़ने से वंचित किया जाना चाहिए।' वैसे, दोषी ठहराए गए नेता के मामले में अयोग्यता का प्रावधान है। 
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (3) के तहत यदि किसी को दोषी ठहराया जाता है और उसे दो साल या उससे अधिक की सज़ा मिलती है तो वह सदन के सदस्य बनने के योग्य नहीं रह जाता है। लेकिन अंतिम निर्णय सदन के स्पीकर का होता है।
बता दें कि इसी प्रावधान के तहत दो साल पहले आपराधिक मानहानि के मामले में दो साल की सज़ा होने पर राहुल गांधी को अयोग्य क़रार दिया गया था। कहा गया था कि छह साल तक वह चुनाव लड़ने से अयोग्य हो गए थे। बाद में जब ऊपरी अदालत में उनकी सज़ा रद्द की गई तो उनकी सदस्यता बहाल हो पाई थी।
why is centre opposing lifetime ban on convicted leaders - Satya Hindi

आजीवन प्रतिबंध पर केंद्र की क्या राय

बहरहाल, अब केंद्र सरकार ने कहा है कि अयोग्यता की अवधि तय करना पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में है। केंद्र ने हलफनामे में कहा, 'यह सवाल कि आजीवन प्रतिबंध ठीक होगा या नहीं, एक ऐसा सवाल है जो पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में है।' इसमें कहा गया है कि सजा को उचित अवधि तक सीमित करके डेटरेंट के रूप में इस्तेमाल किया गया है जबकि अनावश्यक कठोरता से बचा गया है।

याचिका में  उपाध्याय ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 और 9 को चुनौती दी है। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार उपाध्याय ने कहा है कि दोनों मामलों में अयोग्यता आजीवन होनी चाहिए। सरकार ने हलफनामे में कहा है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (1) के तहत अयोग्यता की अवधि दोषसिद्धि की तारीख़ से छह साल या कारावास की स्थिति में रिहाई की तारीख़ से छह साल है। धारा 9 के तहत भ्रष्टाचार या राज्य के प्रति निष्ठाहीनता के कारण बर्खास्त किए गए लोक सेवकों को ऐसी बर्खास्तगी की तारीख से पांच साल की अवधि के लिए अयोग्य घोषित किया जाएगा। 

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हलफनामे में केंद्र ने कहा है कि सजा के प्रभाव को कुछ समय तक सीमित करने में कुछ भी असंवैधानिक नहीं है और ऐसा करना कानून का ही सिद्धांत है।

इसमें यह भी कहा गया है कि इसे न्यायिक समीक्षा में नहीं आना चाहिए क्योंकि ये साफ़ तौर पर संसद की विधायी नीति के अंतर्गत आते हैं। केंद्र ने तर्क दिया कि न्यायिक समीक्षा के तहत सर्वोच्च न्यायालय केवल कानूनों को असंवैधानिक करार देकर उन्हें रद्द कर सकता है, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई आजीवन प्रतिबंध की राहत नहीं दे सकता। अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट आगे की सुनवाई बाद में करेगा।

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)
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