राहुल गाँधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद रफ़ाल विवाद ने एक रोचक मोड़ ले लिया है। समाचार एजेन्सी एएनआई ने अपने ट्विटर हैंडल पर रक्षा मंत्रालय की फ़ाइल का एक हिस्सा अपलोड किया है, जिसमें पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की टिप्पणी नज़र आती है, जो उन्होंने रक्षा सचिव की टिप्पणी पर की थी। इस काग़ज से साफ़ है कि ‘द हिन्दू’ में छपी ख़बर में पर्रिकर की टिप्पणी का ज़िक्र नहीं है। इससे यह तो पता चलता है कि ‘द हिन्दू’ की ख़बर अधूरी है। एन. राम एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं, जिन्होंने बोफ़ोर्स तोप घोटाले पर काफ़ी सनसनीखेज जानकारियाँ लिखी हैं। एन. राम को वैसे इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि उन्होंने पर्रिकर की टिप्पणी को अपनी ख़बर में जगह क्यों नहीं दी?
हम आपको बता दें कि रक्षा सचिव ने फ़ाइल पर लिखा था, ‘आरएम (रक्षा मंत्री) कृपया इसे देखें। अच्छा हो कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस तरह की बातचीत न करे क्योंकि इससे सौदा करने के मामले में हमारी स्थिति बहुत कमज़ोर हो जाती है।'
फ़ाइल पर रक्षा सचिव ने अपनी टिप्पणी 1 दिसंबर 2015 को लिखी थी। तक़रीबन 40 दिनों के बाद यानी 11 जनवरी 2016 को रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस अपनी टिप्पणी दर्ज की। पर्रिकर ने लिखा, ‘शिखर बैठक के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय और फ़्रांस के राष्ट्रपति कार्यालय पूरे मामले की प्रगति पर लगातार नज़र बनाए हुए है।’ उन्होंने लिखा कि ‘पैरा 5 में ज़रूरत से अधिक प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है। रक्षा सचिव प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव से बातचीत कर मामले को सुलझाएँ।’
फ़ाइल के पैरा 5 में रक्षा उपसचिव ने यह लिखा था, ‘यह साफ़ है कि पीएमओ की समानान्तर बातचीत ने रक्षा मंत्रालय और भारत की तरफ से बात कर रही टीम की बातचीत को कमज़ोर किया है। हम प्रधानमंत्री कार्यालय को यह सलाह देते हैं कि जो लोग भारत की तरफ से बातचीत करने वाली टीम के सदस्य नहीं हैं, वे फ़्रांसीसी सरकार के अफ़सरों से समानान्तर बातचीत करने से बचें। अगर पीएमओ रक्षा मंत्रालय की ओर से बातचीत करने वाली टीम से संतुष्ट नहीं है तो प्रधानमंत्री कार्यालय ख़ुद बातचीत के लिए नई प्रक्रिया तय कर दे।’
रक्षा मंत्रालय के इस नोट से साफ़ है कि उसके अफ़सर पीएमओ के सीधे बातचीत करने से संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने यह भी कहा था कि अगर पीएमओ को उन पर भरोसा नहीं है, तो रक्षा मंत्रालय इस बातचीत से हट सकता है। रक्षा सचिव की टिप्पणी से साफ़ है कि रक्षा मंत्रालय इस मसले पर काफ़ी गंभीर था और वह चाहता था कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर इस मामले में दख़ल दें।
मनोहर पर्रिकर ने इस मसले पर सीधे दख़ल देना उचित नहीं समझा या यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने पूरे मामले से किनारा करने की कोशिश की। इसके बजाय उन्होंने रक्षा सचिव को यह निर्देश दिया कि वह प्रधानमंत्री कार्यालय से अपने स्तर पर ही बातचीत कर मामले को सुलटा लें।
नरेंद्र मोदी न केवल देश के प्रधानमंत्री हैं, बल्कि इस वक़्त वह बीजेपी के सबसे बड़े नेता भी हैं। मोदी के बारे में यह मशहूर है कि वह इंदिरा गाँधी की तरह सारे मामले ख़ुद देखते हैं और उनके मंत्री महज़ कागज़ पर ही मंत्रालय के प्रमुख होते हैं। ऐसे में जब पीएमओ सीधे रक्षा मंत्रालय को बाईपास कर फ़्रांसीसी पक्ष से बातचीत कर रहा था, तो इसका मतलब साफ़ था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद ऐसा चाहते थे और उनके कहने पर ही पीएमओ के संयुक्त सचिव जावेद अशरफ़ बात कर रहे थे। जैसे इंदिरा गाँधी के ज़माने में किसी मंत्री की यह हैसियत नहीं थी कि वह पीएमओ या प्रधानमंत्री के विवेक पर सवाल खड़े करे, वैसे ही मोदी सरकार में किसी मंत्री में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह प्रधानमंत्री से अलग राय रखे और उनके उठाए कदम पर प्रश्न चिह्न लगाए। शायद यही कारण था कि मनोहर पर्रिकर ने रक्षा सचिव की चिंता को दरकिनार कर उन्हीं के ऊपर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि वह पीएमओ से बात कर इस मामले को सुलझाएँ। क़ायदे से रक्षा मंत्री के तौर पर पर्रिकर को ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी से बात कर समाधान खोजना चाहिए था।
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