लद्दाख की सीमांत गलवान घाटी और पेंगोंग झील इलाके में बीते 5 मई से भारत और चीन के बीच सैन्य तनातनी पैदा होने की रिपोर्टों के बीच मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रधान सेनापति औऱ तीनों सेना प्रमुखों के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मुलाक़ात की। यह इस बात का संकेत है कि लद्दाख में सुरक्षा हालात काफी चिंताजनक हो चुके हैं, जिनसे निबटने के लिये भारत के शिखर राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को साथ मिलकर भारत की रणनीति तय करनी पड़ी है।
भारत ने 14 मई को ही अपने संकल्प का इज़हार किया था कि वह अपनी प्रादेशिक अखंडता और सम्प्रभुता की रक्षा के लिये कृतसंकल्प रहेगा।
चीन का मक़सद
लद्दाख के सीमांत इलाक़ों में चीन द्वारा सैन्य तनातनी पैदा करने के पीछे क्या मक़सद हो सकते हैं, इस बारे में कई तरह की अटकलें चल रही हैं।
चीन की यह रणनीति इसलिये भी हैरान करने वाली है कि पिछले साल दोनों देशों ने यह तय किया था कि साल 2020 को भारत- चीन राजनयिक रिश्तों की स्थापना की 70 वीं सालगिरह के रूप में धूमधाम से मनाएंगे।
इसके लिये दोनों देशों ने जनता और सरकारी स्तर पर एक दूसरे के साथ सम्बन्धों को मजबूत करने के लिये सैंकड़ों आदान प्रदान कार्यक्रम बनाए थे। हालांकि कोरोना महामारी की वजह से ये सारे कार्यक्रम धरे रह गए, लेकिन 1 अप्रैल को दोनों देशों के शिखर नेताओं ने एक दूसरे को विशेष संदेश भेजकर रिश्ते गहरे करने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी और इसके लिये एक दूसरे को असीम शुभकामानाएं दी थीं।
अब क्या हो गया?
लेकिन राजनयिक रिश्तों की स्थापना की 70 वीं सालगिरह को दोनों देश सैन्य तनातनी के साल के तौर पर याद रखेंगे। चीन इस बारे में मौन है। जब 24 मई को चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने राजधानी बीजिंग में अंतरराष्ट्रीय मीडिया को सम्बोधित किया तब उन्होंने भारत का नाम तक नहीं लिया। भारत के साथ रिश्तों के बारे में सवाल पूछने का मौका वहाँ मौजूदा भारतीय पत्रकारों को भी नहीं दिया गया।
सीमा विवाद
अस्सी के दशक में जब भारत चीन से कहता था कि आपसी रिश्तों में सौहार्द्र भरने के लिये ज़रूरी है कि दोनों देश अपने सीमा मसले सुलझा लें तब चीनी नेता देंग शियाओ पिंग यही कहते थे कि भारत और चीन के बीच दो हजार साल का मधुर रिश्ता रहा है जिसमें से केवल एक प्रतिशत काल में ही रिश्तों में तनातनी देखी गई है। दोनों देशों के बीच रिश्तों की नींव इतनी मज़बूत है कि इस पर भव्य इमारत खड़ी की जा सकती है।
चीनी नेता कहते थे कि जब दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते मजबूत होंगे तब रिश्तों में एक दूसरे पर निर्भरता और सौहार्द्र का ऐसा माहौल बनेगा कि राजनीतिक और सीमा मसले खुद ही हल हो जाएंगे।
दोतरफा व्यापार
तब से आज तीन दशक से भी अधिक हो चुके हैं। सीमा मसला तो सुलझा नहीं, चीन इसे और उलझाने में जुटा हुआ है।
नब्बे के दशक के शुरू में भारत चीन व्यापार एक 2 करोड डॉलर के दायरे में होता था जो आज बढकर 90 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। लेकिन भारत चीन के राजनीतिक रिश्तों में खाई भी उतनी ही चौड़ी हो गई है। आर्थिक रिश्तों का दायरा तो बढ़ा है, लेकिन इसमें भी चीन ही भारी मुनाफ़े में चल रहा है।
ध्यान देने की बात यह है कि हाल में चीन ने न केवल भारत के साथ पंगा लिया है बल्कि दक्षिण चीन सागर में भी ऐसी हरक़तें की हैं, जिससे दक्षिण चीन सागर के तटीय देशों ने भारी एतराज़ किया है।
दक्षिण चीन सागर
चीन ने एक साथ इतने मोर्चे इसलिये खोल लिये हैं कि उसे लग रहा है कि कोरोना महामारी से जूझ रही दुनिया चीन के साथ पंगा नहीं लेना चाहेगी। दक्षिण चीन सागर में चीन ने जो हरक़तें कीं, उसका दक्षिण चीन सागर के तटीय देश राजनयिक विरोध से अधिक कुछ नहीं कर सके। अंततः चीन ने उन विवादास्पद द्वीपों का विशेष नामकरण कर अपने देश में मिला ही लिया। हांगकांग, ताइवान
चीन को इसमें मिली कामयाबी के बाद उसने अब हांगकांग के नागरिकों से अधिकार छीनने वाले कदम उठाए हैं जिसके अंतरराष्ट्रीय विरोध के कोई व्यावहारिक मायने नहीं होंगे। वह ताइवान के साथ भी हांगकांग जैसा ही व्यवहार करना चाहता है, लेकिन अभी ताइवान को अमेरिका का पुरज़ोर साथ मिल रहा है।
चीन का आधुनिकीकरण
अस्सी के दशक में जब चीन के शिखर पुरुष और चीन के पूंजीवादी सुधारक देंग शियाओ पिंग ने चीन को आधुनिकता की राह पर ले जाने के लिये आधुनिकीकरण का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किया तब उन्हें बाकी दुनिया के सहयोग और साथ की ज़रूरत थी।
इसलिये तब चीन की भावी समर नीति के बारे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टा ने अपने काडरों से कहा था कि वक़्त का इंतजार करो और अपनी ताकत छुपाओ। यानी जब समय आएगा अर्थात अंतरराष्ट्रीय सामरिक समीकरण चीन के पक्ष में झुका होगा तब चीन को अपने सामरिक मंसूबों और महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने का मौका मिल जाएगा।
आज चीन के लिये वही वक़्त आ गया है। भारत चीन सीमा पर हालात अपने अनुकूल ढालने के लिये लद्दाख से लेकर दक्षिण चीन सागर और ताइवान व हांगकांग तक चीन अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये कदम उठा रहा है।
ऐसे वक्त जब भारत और पूरी दुनिया चीन से फैली कोरोना महामारी से जूझ रही है, चीन ने न केवल लद्दाख के सीमांत इलाकों पर अपनी सैन्य आक्रामकता का भोंडा प्रदर्शन शुरू किया है बल्कि वह दक्षिण चीन सागर में भी विवादास्पद द्वीपों को अपने देश के ज़िलो का नाम दे कर उन पर अपना वैधानिक अधिकार जताना चाह रहा है।
चाइना ड्रीम
चीन की विदेश और समर नीति में आक्रामकता 2012 के अंत में मौजूदा राष्ट्रपति शी जिन पिंग के सत्तारुढ़ होने के बाद से ही देखी जा रही है। उन्होंने 21 वीं सदी में ‘चाइना ड्रीम’ और 21वीं सदी के लक्ष्यों को हासिल करने का ऐलान किया है। इसमें ताइवान का एकीकरण और दक्षिण चीन सागर पर चीनी प्रभुत्व स्थापित होना छिपा अंर्तनिहित लक्ष्य शामिल है। अब 5 साल के अपने दूसरे कार्यकाल में वह चीनी सपना समय से पहले हासिल करने का देखने लगे हैं।
शी जिन पिंग को जल्दी है कि वह चीन के ऐसे सम्राट के तौर पर याद किये जाएँ, जिन्होंने चीन के पृथ्वी पर शासन करने वाले पुराने चीनी इतिहास दुहराए हैं।
प्राचीन गौरव
चीन प्राचीन काल में अपने को स्वयंभू मिडल किंगडम यानी पृथ्वी के मध्य में स्थित साम्राज्य के तौर पर देखता रहा है जिसका पूरी दुनिया पर प्रभुत्व स्थापित हो। शी जिन पिंग अपने शासन काल में चीन को वही दर्जा हासिल करवाने का लक्ष्य ले कर चल रहे हैं।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये चीनी नेतृत्व ने जहाँ 'बेल्ट एंड रोड' की महत्वाकांक्षी योजना लागू करने में काफी सफलता हासिल कर ली है, वहीं दुनिया के मुख्य औद्योगिक सप्लायर बन कर पूरी दुनिया की चीन पर निर्भरता बनाने में भी कामयाबी हासिल कर अपनी आर्थिक ताक़त का इज़हार किया है।'
चीन ने अपनी नाराज़गी का इज़हार संयुक्त राष्ट्र तक किया है और इससे चीन संतुष्ट नहीं हुआ तो उसने सीमांत इलाकों में भारत को सैन्य चुनौती दी है। भारतीय राजनयिक सूत्रों का कहना है कि भारत ने जिस तरह 2017 के जून में 73 दिनों तक डोकलाम में चीनी सैन्य चुनौती का दृढ़ता से मुक़ाबला किया है, उसी तरह इस बार भी भारत तैयार है।
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