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ज्ञानवापी, कुतुब मीनार, यूनिफॉर्म सिविल कोड और मुसलमानों के सामने पेश तमाम संकटों पर विचार के लिए देवबंद में जमीयत उलेमा-ए-हिन्द 28 मई को एक कॉन्फ्रेंस बुलाई है। यह कॉन्फ्रेंस दो दिन तक चलेगी। इसमें करीब 5000 उलेमा, मुस्लिम बुद्धिजीवी, मुस्लिम विद्वान शामिल होंगे।
जमीयत के प्रवक्ता मोहम्मद अजीमुल्लाह ने बताया कि इस जलसे में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी समेत तमाम मुस्लिम तंजीमों को भी बुलाया गया है। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों को व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण भेजा गया है। इस जलसे का मुख्य एजेंडा मुसलमानों के सामने पेश सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक चुनौतियों पर विचार करना है। इसमें कॉमन सिविल कोड का मुद्दा भी शामिल है। लेकिन फिलहाल मथुरा ईदगाह के मुद्दे पर विचार नहीं होगा। मौलाना महमूद मदनी इस जलसे की अध्यक्षता करेंगे।
मुसलमानों से जुड़े तमाम मुद्दों पर अभी तक एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ही मुखर रहे हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सिर्फ बयानों तक सीमित रहे हैं। शाहीनबाग आंदोलन के बाद मुसलमानों के किसी बड़े संगठन ने मुसलमानों को एक मंच पर जमा करने की पहल भी नहीं की। आम मुसलमान तमाम मुद्दों पर खामोश है और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है। इसे दक्षिणपंथी संगठनों ने भी महसूस किया है।
मुसलमानों के अंदर से यह मांग बार-बार उठ रही थी कि हमारी बातों को सही ढंग से रखने और लोगों को एकजुट करने की पहल नहीं की जा रही है। कोई भी मुस्लिम संगठन प्रमुख भूमिका में आने से बच रहा है। इन हालात को भांप कर मौलाना महमूद मदनी ने यह पहल की है। लेकिन ऐसा नहीं है कि वो सवालों के घेरे में नहीं रहते हैं। मदनी ने कई बार आरएसएस और बीजेपी के नेताओं से मुलाकात की है। इसलिए उनका 28 मई का देवबंद जलसा भी सवालों से बच नहीं सका है।
इससे पहले भी किसी बड़े मुद्दे के सामने आने पर जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ऐसे जलसे आय़ोजित करती रही है। लेकिन वो जलसे दिल्ली में होते रहे हैं। देवबंद में जलसे के आय़ोजन के पीछे एक तरह की रणनीति भी है। देवबंद में दारुल उलूम भी है जो शिक्षा का बड़ा केंद्र है। देशभर के मुसलमानों की नजरें देवबंद पर होती हैं, इसलिए जलसे के लिए इस शहर को खासतौर पर चुना गया है।
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द भारत का धर्मनिरपेक्ष संगठन है जो राजनीतिक प्रक्रिया में पूरी तरह हिस्सा भी लेता है। तमाम राजनीतिक दलों से उसके बेहतर संबंध हैं। अभी यह साफ नहीं है कि मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर देवबंद में विचार तो होगा, लेकिन क्या किसी बड़े आंदोलन की रूपरेखा भी तय की जाएगी। सिर्फ भाषण देकर सरकार को कोसने से बात नहीं बनने वाली, उससे आम मुसलमान का क्या मिलेगा।
शाहीनबाग आंदोलन से जो तेवर निकले थे, उसे भी तमाम मुस्लिम संगठन एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार नहीं कर सके। हालांकि तमाम राजनीतिक दलों की उदासीनता भी मुसलमानों की खामोशी के लिए जिम्मेदार है। हाल ही में यूपी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का सबसे ज्यादा वोट पाने वाली समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों के तमाम मुद्दों पर कोई स्टैंड नहीं लिया। ऐसे में देवबंद के सम्मेलन से भी बड़ी उम्मीद लगाना फिलहाल फिजूल होगा।
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