सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के तबादले की औपचारिक सिफारिश कर दी है। यह फ़ैसला तब आया जब उनके सरकारी आवास में आग लगने के दौरान जली हुई नकदी के बंडल मिलने की ख़बर ने तूफ़ान खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 20 और 24 मार्च को हुई अपनी बैठकों में जस्टिस वर्मा को उनके मूल कोर्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट में वापस भेजने का प्रस्ताव पारित किया। यह मामला अब न केवल न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है, बल्कि कॉलेजियम की कार्यप्रणाली और पारदर्शिता पर भी बहस छेड़ रहा है।
14 मार्च 2025 को होली की छुट्टियों के दौरान जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी बंगले में आग लग गई थी। जस्टिस वर्मा उस वक़्त शहर में नहीं थे। उनकी बेटी और निजी सचिव ने फायर ब्रिगेड को सूचना दी। आग बुझाने के दौरान फायरकर्मियों को स्टोर रूम में जली हुई नकदी के बंडल मिले, जिसका वीडियो भी सामने आया। इस घटना की जानकारी दिल्ली पुलिस और सरकार के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना तक पहुँची। इसके बाद 20 मार्च को कॉलेजियम की आपात बैठक बुलाई गई, जिसमें पाँच जजों ने सर्वसम्मति से जस्टिस वर्मा के तबादले की सिफ़ारिश की।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने नकदी मिलने पर 'प्रतिकूल' रिपोर्ट मिलने और एक वीडियो सामने आने के बाद 20 मार्च को कॉलेजियम की बैठक बुलाई थी। 24 मार्च को दूसरी बैठक के बाद सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर बयान जारी किया गया जिसमें कहा गया, 'कॉलेजियम ने दिल्ली हाई कोर्ट में दूसरे सबसे वरिष्ठ जज और कॉलेजियम के सदस्य जस्टिस यशवंत वर्मा को उनके मूल कोर्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट में तबादले की सिफ़ारिश की है, जहाँ वह नौवें स्थान पर होंगे।' लेकिन इस प्रस्ताव को तुरंत अपलोड नहीं किया गया, जिससे इस पर तरह-तरह की अटकलें लगाई गईं।
जैसे-जैसे विवाद बढ़ा, सुप्रीम कोर्ट ने 21 मार्च को एक प्रेस नोट जारी कर सफ़ाई दी कि जस्टिस वर्मा का तबादला इन-हाउस जाँच प्रक्रिया से अलग और स्वतंत्र है। इसका मतलब यह था कि तबादले का फ़ैसला नकदी की खोज से सीधे तौर पर जुड़ा नहीं है। दूसरी ओर, दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय को जाँच का जिम्मा सौंपा गया।
क्या यह सजा है या लीपापोती?
इस मामले ने कई सवाल खड़े किए हैं। पहला, अगर जस्टिस वर्मा के दावे सही हैं कि कोई नकदी नहीं थी तो तबादले और जाँच की ज़रूरत क्यों पड़ी? दूसरा, अगर नकदी थी तो क्या तबादला ही काफी है, या यह महज लीपापोती की कोशिश है? सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ़ करने की कोशिश की कि तबादला प्रशासनिक निर्णय है, न कि सजा। लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा, 'हमारा कोर्ट कूड़ेदान नहीं है।' उनका तर्क है कि अगर जस्टिस वर्मा पर संदेह है तो उन्हें इलाहाबाद वापस भेजना समस्या का हल नहीं है।
कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ वकीलों और कई क़ानूनी जानकारों ने इस घटना को न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का गंभीर मामला बताया।
सिब्बल ने कहा, 'यह पहली बार नहीं है जब ऐसे सवाल उठे हैं। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है।' यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या कॉलेजियम ने इस्तीफ़े की माँग या संसद के जरिए हटाने की प्रक्रिया शुरू करने जैसे सख़्त क़दम के बजाय आसान रास्ता चुना।
सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यीय समिति गठित की है, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. संधवालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जज जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं। इस समिति से उम्मीद है कि यह जाँच निष्पक्ष होगी और सच सामने आएगा।
जस्टिस यशवंत वर्मा का तबादला और नकदी का मामला एक ओर न्यायपालिका के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी को उजागर करता है तो दूसरी ओर कॉलेजियम सिस्टम की खामियों को भी सामने लाता है। नकदी का आरोप सही साबित होता है तो यह सवाल उठेगा कि क्या तबादला ही काफी सजा है। और अगर यह साजिश है तो यह और भी गंभीर सवाल खड़े करता है कि न्यायपालिका के भीतर ऐसी साज़िशें कौन रच रहा है।
फिलहाल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट की जाँच और जनता की नजरों में है। आने वाले दिन तय करेंगे कि यह घटना न्यायिक सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाएगी या फिर एक और अनसुलझा विवाद बनकर रह जाएगी। लेकिन इतना तय है कि यह कांड न्यायपालिका की साख पर गहरा असर छोड़ गया है।
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