“
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है और केंद्र के लिए झटका है। क्योंकि खनिज रॉयल्टी के मामले में केंद्र-राज्य संबंध को अदालत ने शीशे की तरह साफ कर दिया है।
बेंच इस बेहद विवादास्पद मुद्दे पर सुनवाई कर रही थी कि क्या खनिजों पर देय रॉयल्टी खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 के तहत एक टैक्स है, और क्या सिर्फ केंद्र के पास इस तरह की वसूली करने की पावर है या राज्यों के पास भी अपनी खनिज वाली जमीनों पर लेवी टैक्स लगाने का अधिकार है।
1989 में, सात जजों की बेंच ने माना था कि केंद्र के पास संघ सूची (सूची I) की प्रविष्टि 54 के तहत अधिनियमित कानूनों के अनुसार "खानों और खनिज विकास के विनियमन" पर पहला अधिकार है। राज्यों के पास एमएमडीआरए के तहत केवल रॉयल्टी लेने की पावर है और वे खनन और खनिज विकास पर कोई और टैक्स नहीं लगा सकते हैं। उस समय बेंच ने कहा था कि “हमारी राय है कि रॉयल्टी एक टैक्स है, और रॉयल्टी पर टैक्स होने के कारण रॉयल्टी पर उपकर राज्य विधानमंडल नहीं लगा सकता। क्योंकि इसे केंद्रीय अधिनियम कवर करता है।”
लाइव लॉ और बार और बेंच के अनुसार, सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा, "खनन पट्टे से रॉयल्टी प्रवाहित होती है, यह आम तौर पर निकाले गए खनिजों की मात्रा के आधार पर तय की जाती है। रॉयल्टी की बाध्यता पट्टेदार और पट्टेदार के बीच अनुबंध की शर्तों पर निर्भर करती है और भुगतान सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए नहीं है बल्कि यह विशेष उपयोग शुल्क के लिए है।"
सीजेआई ने कहा, जब तक संसद कोई सीमा नहीं लगाती, खनिज अधिकारों पर टैक्स लगाने का राज्य का पूर्ण अधिकार अप्रभावित रहेगा।
"रॉयल्टी एक टैक्स है" को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच विवाद पुराना है । लेकिन 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के नौ-जजों की बेंच ने स्थिति स्पष्ट कर दी है। राज्यों को राहत मिल गई है वे टैक्स की वसूली कर सकते हैं। हाल ही में तमाम राज्यों में माइनिंग को लेकर आरोप लगे हैं।
अपनी राय बतायें