तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे के राजनीतिक निहितार्थों की चर्चा करने के पहले इसके सांस्कृतिक रूप से शुभ परिणामों को नोट कर लेना चाहिए। कितना रोचक है संबित पात्रा को सभ्यता का पाठ पढ़ाती उन ऐंकर महोदया को देखना जो स्वयं बदतमीज़ी की पाठशाला पिछले कई सालों से चलाती रही हैं। कितना सुखदायी है, इतने बरसों बाद बीजेपी के प्रवक्ताओं को सामान्य स्वर में बात करते सुनना, और कितना रोचक है उनका यह प्रयत्न देखना कि इन चुनावों से मोदी जी की लोकप्रियता के गिरने-उठने का कोई संबंध न जुड़ने पाए।
राहुल की असली चुनौती शुरू होती है... अब
- विधानसभा चुनाव
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- 12 Dec, 2018

बीजेपी के वे नेता जो राहुल गाँधी का ‘पप्पू’ कहकर मज़ाक उड़ाया करते थे, आज उन्हीं के सामने पस्त हैं। मोदी-शाह जैसे कुशल नेताओं और बीजेपी के स्टार प्रचारकों के सामने ‘अकेले’ डटे राहुल ने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं, जहाँ अब बीजेपी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने की ज़रूरत आन पड़ी है। लेकिन क्या अब राहुल की चुनौतियाँ ख़त्म हो गईं?
वास्तविकता यह है कि अपने स्वभाव के अनुरूप मोदीजी ने इस चुनाव को अपने ऊपर स्वयं ही केन्द्रित कर लिया था, राजस्थान में तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा ही था कि आप मुझे वोट दें। इस आह्वान में संकेत निहित था कि भले ही आप वसुंधरा राजे से नाराज हों, लेकिन मुझसे तो नहीं हैं ना, सो मेरे नाम पर वोट दें। इस लिहाज़ से राजस्थान के नतीजे एक मायने में बीजेपी के भीतर मोदी-शाह के मुक़ाबिल वसुंधरा राजे की ताक़त का सबूत भी देते हैं। सब जानते हैं कि वहाँ टिकट वितरण में उन्होंने अमित शाह की नहीं चलने दी थी, और अब वे वाज़िब रूप से यह कह सकती हैं कि इतने स्पष्ट असंतोष के बावजूद राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ़ नहीं होने दिया है। बाद के दिनों में आरएसएस ने भी स्थिति की गंभीरता समझते हुए, वसुंधरा राजे से अपनी नाराज़गी को दरकिनार करते हुए बीजेपी को जिताने में जी-जान लगा दी थी।
इसी तरह, मध्य प्रदेश में ज़बरदस्त सत्ताविरोध की बातों के बावजूद कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत न मिल पाना न केवल संघ/बीजेपी की संगठन क्षमता का बल्कि शिवराज सिंह चौहान के अपने सामर्थ्य का भी परिचय देता है। दूसरे शब्दों में, इन चुनावों का एक अर्थ यह भी है कि अब बीजेपी में मोदी-शाह की मनमानी पर कुछ रोक तो लगेगी।
इसी तरह, मध्य प्रदेश में ज़बरदस्त सत्ताविरोध की बातों के बावजूद कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत न मिल पाना न केवल संघ/बीजेपी की संगठन क्षमता का बल्कि शिवराज सिंह चौहान के अपने सामर्थ्य का भी परिचय देता है। दूसरे शब्दों में, इन चुनावों का एक अर्थ यह भी है कि अब बीजेपी में मोदी-शाह की मनमानी पर कुछ रोक तो लगेगी।
लोकसभा चुनाव पर असर
तेलंगाना और मिज़ोरम का निस्संदेह अपना महत्व है, लेकिन बीजेपी के कोण से देखें तो तीन हिन्दीभाषी राज्यों में उसके जन-समर्थन में कमी आना निश्चय ही खतरे की घंटी है। छत्तीसगढ़ ने तो सारे अनुमानों को झुठलाते हुए कांग्रेस को तीन-चौथाई बहुमत दे दिया है। इसका अपना महत्व है, क्योंकि यहाँ बात विकास के नाम पर संसाधनों की लूट और आदिवासियों को बर्बाद करने की तो थी ही, अजीत जोगी की न्यूसेंस वैल्यू की भी थी। अब कांग्रेस छत्तीसगढ़ में पूरे आत्मविश्वास से आगे बढ़ सकती है। बाक़ी दो राज्यों में कांग्रेस की जीत में वह चमक नहीं है, वह बस काँटे की टक्कर में थोड़ा-सा आगे होने का ही संतोष हासिल कर सकी है। फिर भी कुल मिला कर यह तो स्पष्ट है कि लोक-सभा चुनावों में इन राज्यों में कांग्रेस अब बीजेपी के सामने नए आत्मविश्वास के साथ जाएगी।
पुरुषोत्तम अग्रवाल हिंदी के जाने-माने लेखक और आलोचक हैं। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं अकथ कहानी प्रेम की : कबीर और उनका समय (आलोचना) और नाकोहस (उपन्यास)।