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जानने के अधिकार की कल्पना खास और सही जानकारी के लिए की गई थी। इसका मतलब यह नहीं है कि व्यापक उद्देश्यों के लिए जानने का अधिकार आवश्यक है। इसलिए, इन निर्णयों को इस रूप में नहीं पढ़ा जा सकता है कि किसी नागरिक को राजनीतिक दल की फंडिंग के संबंध में अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत जानकारी का अधिकार है। यदि अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत कोई अधिकार नहीं है, तो अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध लगाने का सवाल ही नहीं उठता।
-आर वेंकटरमणी, अटॉर्नी जनरल, भारत सरकार सोर्सः लाइव लॉ
क्या है चुनावी बांडः केंद्र की मोदी सरकार ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 (आरपीए) की धारा 29 सी में 2017 में बदलाव किया और इस योजना को लागू किया। इसके तहत दानकर्ता भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का इस्तेमाल करके और केवाईसी करने के बाद चुनिंदा बैंकों से चुनावी बांड खरीद सकता है। राजनीतिक दलों को भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को इन बांडों के स्रोत का खुलासा करने की जरूरत नहीं है। ये बांड 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये या 1 करोड़ रुपये के गुणकों में किसी भी मूल्य पर खरीदा जा सकता है। बांड में दानकर्ता का नाम नहीं होगा। बांड जारी होने की तारीख से 15 दिनों के लिए वैध होगा, जिसके भीतर राजनीतिक दल को इसे भुनाना होगा। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए के तहत आयकर से छूट के तहत बांड के अंकित मूल्य को एक पात्र राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से आय के रूप में गिना जाएगा।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 31 अक्टूबर को चुनावी बांड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई शुरू करेगी। बेंच में भारत के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा शामिल हैं। 16 अक्टूबर को, सीजेआई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की 3-जजों की पीठ ने "उठाए गए मुद्दे के महत्व को देखते हुए" मामले को 5-जजों की पीठ के पास भेज दिया था। इससे पहले, CJI चंद्रचूड़ उन याचिकाओं पर सुनवाई करने के लिए सहमत हुए थे - जो 2017 में दायर की गई थीं। याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया था कि मामले की सुनवाई आगामी आम चुनाव से पहले की जाए। आम चुनाव 2024 में होंगे।
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सीपीएम और देश के प्रमुख संगठनों ने इलेक्ट्रोल बांड को चुनावी रिश्वत कहा है। सुप्रीम कोर्ट में इस योजना को चुनौती देने वालों में सीपीएम, कॉमन कॉज, एडीआर आदि शामिल है। इसका विरोध करने वालों का कहना है कि यह पूरे चुनावी तंत्र को भ्रष्ट करेगा। दूसरी सबसे आपत्तिजनक बात ये है कि आखिर इसमें सूचनाएं पारदर्शी क्यों नहीं रखी जा रही है। मसलन जनता को यह जानने का अधिकार क्यों नहीं है कि किस उद्योगपति ने या व्यक्ति विशेष ने किस दल को कितना पैसा दिया है। यह नाम क्यों छिपाया जा रहा है।
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