राम मंदिर-बाबरी मसजिद विवाद पर सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में आज शुरू हो रही है। विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संग के तमाम शोर शराबे के बीच मुसलमान पूरी तरह ख़ामोश हैं। क्या यह ख़ामोशी इस बात का संकेत है कि अयोध्या पर मुसलमान अब तनाव बढ़ाने के बजाय सम्मानजनक समझौता करने के मूड में हैं?
अयोध्या विवाद से जुड़े तमाम मुसलिम संगठन पिछले कई साल से सिर्फ़ एक ही बात कहते आ रहे हैं कि वे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानेंगे। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानने की बात कह कर मुसलिम क़यादत (नेतृत्व) को इस मामले से सम्मानजनक रूप से पीछे हटने का एक बहाना मिल गया है। इसके अलावा उसे कोई विकल्प भी नज़र नहीं आ रहा। राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद मामले में पक्षकार रहे मरहूम हाशिम अंसारी के बेटे इक़बाल अंसारी का कहना है कि अयोध्या विवाद का हल आपसी बातचीत से होने की गुंजाइश अब नहीं बची है।पक्षकारों के बीच तीन-चार बैठकें हो चुकी हैं, मतलब मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड, सुन्नी सेंट्रल बोर्ड के बीच। मसजिद वक़्फ़ है, वक़्फ़ प्रापर्टी सरकार की होती है। कमिश्नर रिसीवर है, अलग से हम कुछ कर नहीं सकते। इस मामले में हम सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ही मानेंगे। जो भी फ़ैसला होगा, वह हमें मंज़ूर होगा।
कोर्ट का फ़ैसला होगा मंजूर
ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड हालाँकि अयोध्या विवाद में पक्षकार नहीं है, लेकिन उसने इसे लेकर एक कमिटी बनाई हुई है। मुसलमानों के धार्मिक मामलों पर यह बोर्ड अपनी बात रखता है। बोर्ड के महासचिव मौलवी वली रहमानी कहते हैं, 'अयोध्या मामले पर हम बग़ैर किसी अगर-मगर के सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानेंगे। अगर कोर्ट के बाहर आपसी बातचीत से इस मसले का हल निकालने के लिए कोई बातचीत होती है तो हम उस बातचीत में शामिल होने के लिए भी तैयार हैं, बशर्ते बातचीत खुले दिल से हो। बातचीत का नतीजा पहले से तय न हो।” वली रहमानी कहते हैं कि आर्ट ऑफ लिविंग के श्रीश्री रविशंकर के साथ बातचीत इसीलिए पटरी पर नहीं आई कि उनका अजेंडा पहले से तय था। पहले से तय एजेंडे के साथ कोई बातचीत नहीं हो सकती। इससे बेहतर है कि सुप्रीम कोर्ट सुबूतों के आधार पर फ़ैसला करे और जो भी फ़ैसला हो सभी पक्ष उसे मानें।
सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले पर मुसलिम पक्षकारों के पैरोकार ज़फरयाब जीलानी कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट में हमारा पक्ष बहुत मज़बूत है. हमें उम्मीद है कि फैसला हमारे हक़ में आएगा। लेकिन अगर किसी वजह से फैसला हमारे ख़िलाफ़ भी आता है तो भी हम उसे मानेगें।’ ज़फरयाब जीलानी आगे कहते हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी कोर्ट में अपना पक्ष मज़बूती से रखने की है. फ़ैसले पर हमारा कोई इख़्तियार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट जो फैसला करेगा, हमें स्वीकार होगा। जीलानी के मुताबिक़, इस मामले में उलेमा की एकमत राय है कि मसजिद की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी बेशक मुसलमानों की है। फ़ैसला करना उनके इख़्तियार में न हो तो जो फ़ैसला आए, उसे बग़ैर अगर-मगर के माना जाए।'
ठोस रुख़ नहीं अपनाया
दरअसल बाबरी मसजिद पर मुसलिम क़यादत कभी ठोस रुख़ इख़्तियार नहीं कर पाई। उसने अपने विरोध को हर साल 6 दिसंबर को काला दिवस मनाने तक सीमित रखा। हालाँकि बाबरी मसजिद तोड़े जाने के बाद 8 दिसंबर 1992 को संसद में इस मुद्दे पर बहस का जवाब देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने तोड़ी गई मसजिद को दोबारा बनवाने का आश्वासन दिया था। लेकिन मुस्लिम क़यादत ने कभी इसे पूरा करने के लिए सरकारों पर दबाव नहीं बनाया।
साल 1994 में एक बार दिल्ली की जामा मसजिद के तत्कालीन इमाम अब्दुल्ला बुख़ारी ने बाबरी मसजिद की जगह पर जुमे की नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमानों के एक जत्थे के साथ अयोध्या कूच का एलान किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने 1993 के फ़ैसले का हवाला देते हुए इसे रोक दिया था। इस फ़ैसले में कहा गया गया है कि केंद्र सरकार के अधिग्रहण वाली 2.77 एकड़ ज़मीन पर किसी भी तरह की स्थायी या अस्थायी रूप से धार्मिक गतिविधि नहीं हो सकती।उसके बाद कभी मुस्लिम पक्ष ने वहाँ किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधि करने की कोशिश नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फ़ैसले के आधार पर 2002 में विश्व हिंदू परिषद को सांकेतिक कारसेवा करने से रोक दिया था।
मुस्लिम पक्ष के पास हैं सीमित विकल्प
दरअसल, मुसलिम पक्ष के पास सीमित विकल्प हैं। यह कहना बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानने के अलावा उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। दिल्ली की फ़तेहपुरी मसजिद के इमाम मुफ़्ती मुक़र्रम अहमद साफ़ कहते हैं, 'इस मामले को बातचीत से सुलझाने की तमाम कोशिशें हुई हैं। मैं ख़ुद कई बैठकों में शामिल रहा हूँ लेकिन कोई हल नहीं निकला। अब तो हालात बहुत ख़राब हो गए हैं। आज जिस तरह सांप्रदायिक ताक़तें सिर उठा रहीं हैं, उसे देखते हुए तो बातचीत से हल निकलने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ही सब लोग मानें। इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है। यही इस मसले का एकमात्र सम्मानजनक हल हो सकता है।'
मंदिर के लिए दे दें ज़मीन
दरअसल, आपसी बातचीत में तमाम मुस्लिम उलेमा मानते हैं कि अयोध्या मामले पर मुसलमानों के सम्मानजनक रूप से पीछे हटने का एकमात्र तरीक़ा यही है कि सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला कर दे। फ़ैसला अगर निर्मोही अखाड़े के पक्ष में आ जाए तो मुसलमानों को उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। एक विचार यह भी है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के पक्ष में आता है तो वक़्फ़ बोर्ड वह ज़मीन निर्मोही अखाड़े को मंदिर बनाने के लिए दे दे। इस ज़मीन के बदले बोर्ड कहीं और उतनी ही ज़मीन ले सकता है। लेकिन इसे मुसलिम समाज में स्वीकृति नहीं मिल पा रही है। शरई ऐतबार से भी इसे व्यावहारिक नहीं माना जा रहा। ज़्यादातर उलेमा का कहना है कि स्कूल, क़ालेज, लाइब्रेरी या अस्पताल खोलने या फिर सड़क चौड़ी करने के लिए मसजिद को हटाया जा सकता है लेकिन उसकी जगह किसी दूसरे धर्म की इबादतगाह बनाए जाने की इजाज़त शरीयत नहीं देती।अंजुमन-ए-मिनहाजुल रसूल के अध्यक्ष मौलवी सैयद अतहर हुसैन देहलवी कहते हैं, 'अयोध्या में मसजिद थी, यह इतिहास है, वहाँ अब मंदिर है, यह वर्तमान की सच्चाई है, उस मंदिर को वहाँ से हटाया नहीं जा सकता। न बलपूर्वक और न आपसी सहमति से, यह सच्चाई है। ऐसे में मुसलमानों के पास विकल्प क्या बचता है? हमारा यह अक़ीदा है कि बाबरी मसजिद कोई मंदिर तोड़कर नहीं बनाई गई थी। अयोध्या में हुई खुदाई में मंदिर से अवशेष ज़रूर मिले हैं लेकिन उससे यह साबित नहीं होता कि उसे तोड़कर मसजिद बनाई गई थी। लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा कहता है तो हम उसकी बात को बग़ैर हिचक मान लेंगे। हमारा दीन हमें देश का संविधान मानने का हुक़्म देता है, हम अपने दीन और संविधान दोनों को ख़ुशी-ख़ुशी मानेंगे।”
सम्मानजनक हल चाहते हैं मुसलमान
दरअसल, देश के ज़्यादातर मुसलमान अयोध्या को लेकर अब और ज्यादा तनाव नहीं चाहते, वे सम्मानजनक हल चाहते हैं। सम्मानजनक हल यह हो सकता है कि अयोध्या में राम मंदिर बनने दिया जाए और हिंदू बाक़ी मसजिदों पर दावा छोड़ दें। इसकी कोशिशें पहले कई बार हुई हैं, लेकिन सहमति नहीं बन पाई। हिंदू संगठनों का नारा ही रहा है ‘अयोध्या तो झाँकी है, काशी-मथुरा बाक़ी है।’ अयोध्या पर दावा छोड़ने के पक्ष में बात करने वाले और उदार समझे जाने वाले मुसलमानों को भी लगता है कि यह सिलसिला अगर एक बार शुरू हुआ तो कहाँ जाकर रुकेगा, कोई नहीं जानता।
बाक़ी मसजिदों पर भी है दावा
हिंदू संगठनों ने तीस हज़ार मसजिदों, मक़बरों, दरगाहों और खानकाहों की लिस्ट बना रखी है। इनके बारे में दावा किया जाता है कि इन्हें किसी न किसी मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। करीब 25 साल पहले यह पूरी लिस्ट संघ परिवार की पत्रिका 'राष्ट्रधर्म' के कई अंकों में सिलसिलेवार ढंग से छप चुकी है। साल 1991 में तत्कालीन पीएम पी.वी. नरसिंह राव सरकार ने संसद में धार्मिक स्थल क़ानून बनाया था। इसके मुताबिक़ बाबरी मसजिद को छोड़ कर देश के तमाम धार्मिक स्थल उसी स्थिति में रहेंगे जिस स्थिति में वे 15 अगस्त 1947 को थे। किसी भी सूरत में उसे बदला नहीं जा सकता। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि की जगह को लेकर विवाद के चलते ही उसे इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया।
वैसे तो मुसलमान अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मानने की बात कह रहे हैं। लेकिन अगर सरकार देश में सभी धार्मिक स्थलों को यथास्थिति बनाए रखने वाले क़ानून पर सख़्ती से अमल की गारंटी दे और मुसलमानों को भरोसा दिलाए कि अयोध्या के बाद संघ परिवार या कोई अन्य हिंदू संगठन किसी और मसजिद पर दावा नहीं करेगा तो मुसलमान अयोध्या में मसजिद का दावा छोड़ भी सकते हैं। यह अयोध्या विवाद का कोर्ट के बाहर व्यावहारिक हल हो सकता है। मुसलमानों के मन की असली बात यही है। मगर दिल की बात कोई ज़ुबाँ पर लाना नहीं चाहता और इसकी वजह सब जानते हैं।
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