अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ जाँच कराने वाली सरकार क्या अपने निशाने पर उन संस्थाओं को भी लेने लगी है, जो उसकी आलोचना करते हैं? क्या मोदी सरकार अपनी आलोचनाओं से इस तरह घबराई हुई है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों तक को नहीं बख़्शती है? एमनेस्टी इंटरनेशनल पर सीबीआई छापे के बाद ये सवाल अधिक तल्ख़ी से पूछे जाने लगे हैं।
सीबीआई ने फ़ॉरन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफ़सीआरए) के कथित उल्लंघन के मामले में एमनेस्टी के बेंगलुरु और दिल्ली स्थित दफ़्तरों पर छापे मारे। इससे पहले गृह मंत्रालय की शिकायत पर सीबीआई ने 5 नवंबर को एक मामला दर्ज किया था।
आरोप यह लगाया गया है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने एमनेस्टी इंटरनेशनल यू. के. से पैसे लिए, जो ए़फ़सीआरए और भारतीय दंड संहिता का उल्लंघन है। यह कहा गया है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने नियम क़ानून का उल्लंघन कर 10 करोड़ रुपए लिए।
यह पहला मौका नहीं है जब एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के दफ़्तर पर छापा मारा गया है। सरकार ने 26 अक्टूबर 2018 को भी एमनेस्टी के बेंगलुरु दफ़्तर पर छापा मारा था। उस समय सरकार ने इस मानवाधिकार संगठन पर विदेशी मुद्रा अधिनियम यानी फेमा के उल्लंघन का आरोप लगाया था। एमनेस्टी इंटरनैशनल ने भारत के कार्यकारी निदेशक आकर पटेल ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया था।
सरकार के निशाने पर सिर्फ़ एमनेस्टी इंटरनेशनल ही नहीं है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के तीन हफ़्ते पहले वैश्विक पर्यावरण एनजीओ ग्रीनपीस के कार्यालयों पर हुई छापे मारे गए थे।
भारत में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा विदेशों से फ़ंड इकट्ठा करना एक विवादास्पद मुद्दा रहा है।
अप्रैल 2015 में सरकार ने क़रीब 9000 ऐसी संस्थाओं के पंजीकरण रद्द कर दिए थे, जिन्हें विदेशों से फ़ंड मिलता था। सरकार ने कहा था कि ये संस्थाएं भारत के टैक्स क़ानून का पालन नहीं कर रही हैं।
ग्रीनपीस ने कहा था कि संगठन भारत में पर्यावरण से जुड़े काम में ख़र्च होने वाला हर रुपया जागरूक लोगों का दान किया गया होता है। बयान में कहा गया था कि ऐसा लगता है कि इस देश में लोकतांत्रिक विरोध को कुचलने का अभियान चल रहा है।
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