केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की पहल पर मणिपुर के 17 माह पुराने जातीय संघर्ष को सुलझाने के लिए बुलायी गयी पहली दिल्ली बैठक ने आशा तो कम ही जगायी, विश्वास की कमी और बीजेपी सरकार के पक्षपात और सुरक्षा देने में विफलता और नाकारेपन पर ज्यादा सवाल उठाये। सबसे ज्यादा सवाल राज्य के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की शासन शैली को लेकर उठे। बैठक में आए मैतेई, कुकी और नगा समुदायों के प्रतिनिधियों में खासकर कूकी समुदाय के लोगों ने सीधे सवाल किये कि जब सरकार एक समुदाय के साथ खड़ी है, तो दूसरे समुदायों को सुरक्षा और न्याय कैसे मिलेगा। सूत्रों की मानें तो बैठक में कूकी समुदाय के विधायकों ने मुख्यमंत्री की बर्खास्तगी और अलग प्रशासन की मांग पर जोर दिया।
गृह मंत्री अमित शाह के निर्देशों पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीनस्थ खुफिया ब्यूरो (आईबी) द्वारा बुलायी गयी यह बैठक दरअसल जितनी मणिपुर के जनजातीय संघर्षों पर विराम के लिए थी, उससे कहीं ज्यादा राज्य की भाजपा नीत एनडीए सरकार को बचाने के लिए थी। सुनकर आश्चर्य जरूर होगा, पर सच यही है। इस बैठक के लिए आईबी ने एड़ी चोटी का जोर लगाया। विधायकों को फोन किये, ईमेल भेजे, और सुरक्षा का भरोसा भी दिलाया। इसके बावजूद इसमें कूकी जनजातीय समुदाय के कुल 10 में से 4 विधायक ही आ पाये।
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मणिपुर समस्या पर दिल्ली बैठक भाजपा नीत एनडीए सरकार को बचाने के लिए कैसे थी, इसको ऐसे समझें।
मणिपुर की 60 सदस्यीय विधानसभा में कहने को भाजपा के पास बहुमत के आंकड़े से एक ज्यादा 32 सीटें हैं और एनडीए के सहयोगी दलों को मिलाकर कुल 37 विधायक हैं। राज्य विधानसभा में 40 विधायक इम्फाल घाटी यानी मैतेई समुदाय से, 10 कुकी-जो से और 10 नगा नेता पहाड़ी इलाकों से हैं।
मणिपुर में NDA की सहयोगी कुकी पीपुल्स अलायंस (KPA) के कुल दो विधायकों ने बीरेन सिंह सरकार से पिछले 6 अगस्त को ही समर्थन वापस ले लिया था। KPA जनरल सेक्रेटरी हानसिंह ने कहा था कि हम BJP सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। अब हम अलग हैं।
अल्पमत में है भाजपाः भाजपा की टिकट पर जीतकर आये 31 में 7 कूकी विधायक भी शामिल हैं, जिन्होंने राज्य की मैतेई सरकार से खुद को अलग कर लिया है। भाजपा के सात विधायकों सहित दस आदिवासी विधायकों ने राज्य में कुकी-हमार-ज़ोमी बहुल क्षेत्रों के लिए "अलग प्रशासन" की मांग की है। तो 7 कूकी विधायकों के कम होने से भाजपा की संख्या रह जाती है 24। तो साफ तौर पर भाजपा सरकार खुद अल्पमत में है और एनडीए घटकों के सहारे पर टिकी है।
एनपीपी की चाबी मेघालय मेंः बाकी दलों के बाहरी समर्थन में भी झोल है। मणिपुर में नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की बीते दिनों हुई राज्य कार्यकारिणी की बैठक में इसके 8 विधायकों में से कोई भी शामिल नहीं हुआ। एनपीपी की चाबी इसके अध्यक्ष और मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के संगमा के हाथ में है। भाजपा वैसे तो मेघालय में एनपीपी के नेतृत्व वाली मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा सरकार का समर्थन कर रही है, पर मणिपुर इकाई बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को समर्थन जारी रखने पर बंटी हुई।
एनपीएफ में भी दरारः अगर एनपीपी अलग होती है तो बीजेपी सरकार जदयू के 6 विधायकों, नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के 5 और निर्दलीय 3 विधायकों पर निर्भर होगी। एनपीएफ में भी दरार है, क्योंकि दिल्ली बैठक में इसके 3 ही विधायक पहुंचे।
बीजेपी विधायक दल में असंतोषः बीजेपी विधायक दल में भी बीरेन सिंह को लेकर असंतोष है। और निर्दलीयों में भी सभी बीरेन सिंह के पक्ष में नहीं हैं। लिहाजा मणिपुर सरकार तलवार की धार पर आ गयी है। तो कहीं न कहीं केन्द्र की दिल्ली बैठक की कवायद के पीछे कूकियों, नगाओं और अन्य समुदायों को मनाकर अपनी सरकार बचाने का प्रयास भी है।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की भारी जीत
मणिपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मात्र 5 विधायक हैं। लेकिन इस बार 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को राज्य की दोनों लोकसभा सीटों पर भारी जीत मिली। बाहरी मणिपुर सीट पर अल्फ्रेड कन्नगाम एस आर्थर ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी एनपीएफ के काचुई टिमोथी जिमिक को हराकर 85,418 मतों से जीते। आर्थर को 3,84,954 और जिमिक को 2,99,536 मत मिले। आंतरिक मणिपुर सीट पर, अंगोमचा बिमोल अकोईजाम ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा के टी बसंतकुमार को 1,09,801 मतों से हराया। अकोईजाम को 3,74,017 मत और सिंह को 2,64,216 मत मिले। आलम यह था कि आउटर मणिपुर लोस सीट से बीजेपी का टिकट मांगने कोई नहीं आया। मणिपुर की दोनों लोकसभा सीटों पर बीजेपी और उसके सहयोगी एनपीएफ को भी जनता ने पूरी तरह से नकार दिया। साफ है कि बीजेपी राज्य में सिर्फ कूकी ही नहीं मैतेई समुदाय का विश्वास भी खो चुकी है।
मणिपुर में सत्तारूढ़ बीजेपी 2022 में राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल कर कांग्रेस के बाद ऐसा करने वाली दूसरी पार्टी बन गई थी। 21 जनवरी 1972 को बने मणिपुर में केवल कांग्रेस ने 2012 में 42 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल किया था।
कितने विधायक आयेः मणिपुर के जातीय संघर्ष को सुलझाने के लिए नई दिल्ली में आहूत मैतेई, कुकी और नगा समुदायों के प्रतिनिधियों की पहली बैठक में मैतेई, कुकी और नगा समुदायों के लगभग 20 विधायकों के आने का दावा किया गया, लेकिन आधिकारिक तौर पर जो सूची जारी की गयी, उसमें मैतेई समुदाय की ओर से विधानसभा अध्यक्ष थोकचोम सत्या ब्रता सिंह, टोंगब्राम रोबिंद्रो और बसंतकुमार सिंह ही उपस्थित थे। कूकी विधायकों में सिर्फ लेटपाओ हौकिप और नेमचा किपगेन, जो राज्य मंत्री भी हैं, शामिल हुए। जबकि नगा समुदाय का प्रतिनिधित्व राम मुइवाह, अवांगबो न्यूमई और एल. डिखो ने किया।
बैठक में भाजपा सांसद संबित पात्रा उत्तर पूर्वी राज्यों के पार्टी समन्वयक के रूप में शामिल हुए। कहते हैं कि उन्होंने विधायकों को दिल्ली लाने में मदद की।
बैठक में केंद्र के मध्यस्थ ए. के. मिश्रा और अन्य वरिष्ठ अधिकारी तो उपस्थित थे। लेकिन न तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह शामिल हुए और न मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह अथवा उनके मंत्रिमंडल के अन्य सदस्य। इससे पहले अमित शाह ने कहा था कि कूकियों और मैतेई समुदायों के बीच संवाद आवश्यक है।
संघर्ष की त्रासदीः मई 2021 से जारी मणिपुर हिंसा में अब तक 220 से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं और 65,000 से ज्यादा लोग विस्थापित हो चुके हैं। हिंसा से त्रस्त राज्य के लोगों को आवश्यक वस्तुओं की महंगाई के साथ खाद्य, शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की घोर कमी का सामना करना पड़ रहा है।
इस संघर्ष की शुरुआत मूलतः मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के संबंध में एक अदालती फैसले के बाद शुरू हुआ था, जिसने मैतेई और कूकी समुदायों के बीच तनाव को बढ़ा दिया।
हाल ही में राज्य में स्थिति तब और बिगड़ गई जब राज्य के सुरक्षा सलाहकार ने म्यांमार से 900 कूकी विद्रोहियों के घुसपैठ का आरोप लगाकर गंभीर भय और भ्रम पैदा कर दिया। साथ ही ड्रोन हमलों की भी बातें सामने आईं। हालांकि, इन खबरों को बाद में खारिज कर दिया गया। लेकिन इसने तनाव को और बढ़ा दिया और स्थिति को और जटिल बना दिया।
बैठक में क्या हुआ
अब ये पहली बैठक तो पूरी हो चुकी है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि बैठक एक साथ हुई या अलग अलग, अध्यक्षता किसने की और क्या मांगें रखी गयीं। बैठक के बाद जारी एक आधिकारिक बयान में सभी समुदायों से हिंसा को नकारने और शांति को प्राथमिकता देने का आग्रह किया गया है। प्रतिनिधियों ने एकजुटता और संवाद की आवश्यकता पर जोर दिया, ताकि और अधिक जीवन का नुकसान न हो।
कूकी समाज के लोग अलग प्रशासन या मणिपुर में आदिवासियों के लिए एक केंद्र शासित क्षेत्र की मांग करते आ रहे हैं। इसको लेकर कोई आधिकारिक बयान जारी न होने से कई अटकलों को जगह मिल रही है। क्योंकि इस तरह के रहस्यवाद से अफवाहें और षड्यंत्र की बातें फैल सकती हैं।
पिछले 17 महीनों से कूकी-जो समुदाय के संगठनों जैसे कि CoTU और ITLF ने शांति बहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बेहतर होगा कि आगे इन दोनों समुदायों के नागरिक समूहों की समान बैठकें आयोजित की जाएं, ताकि उनके बीच मतभेदों को पाटा जा सके।
हाल ही में राज्य में गठित शांति समिति, जिसे इस जातीय संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में स्थापित किया गया था, की कोशिशें असफल साबित हुई थी। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि मणिपुर के लोग इस पहल का कैसे जवाब देते हैं। इस बैठक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि 17 महीने बाद पहली बार मैतेई और कूकी-जो विधायकों ने बातचीत में हिस्सा लिया है।
कूकियों के मन में संशय
पर कूकियों के मन में संशय साफ है। राज्य की भाजपा नीत बीरेन सिंह सरकार साफ तौर पर मैतेई समुदाय के साथ खड़ी है। बीरेन सिंह सरकार के कुछ नये जिले बनाये हैं, उस पर भी कूकियों में विवाद है। मणिपुर की सुरक्षा के लिए फ्री मूवमेंट रेजीम (Free Movement Regime) को निलंबित करने और इंडो-म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाने के निर्णय से नगाओं में असंतोष है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के न आने की टीसः भाजपा की आलोचना इसलिए भी की जा रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य की घनघोर अनदेखी की है, इतने गंभीर संकट में भी उनका दुख दर्द जानने नहीं आये। और ये पहल भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पमुख मोहन भागवत के बयान के कई महीनों बाद उठाये गये हैं।
अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का खेल न होः मणिपुर का संघर्ष दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। दलितों, पिछड़ों और जनजातीय समुदायों के लिए न्याय का दावा करने वाली भाजपा सरकार के दामन पर इस राज्य के जनजातीय समाजों की पीड़ा एक गहरा दाग है, जिसे मिटाना जरूरी है। राज्य में अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का खेल न हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
अनिश्चितता बरकरार
दिल्ली बैठक मणिपुर के जातीय संघर्ष को हल करने की दिशा में पहला प्रयास जरूर है, लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह समाधान की दिशा में एक वास्तविक कदम था या सत्ता बचाने की एक राजनीतिक रणनीति। आगामी दिनों में राज्य की राजनीतिक स्थिति इन सवालों का उत्तर दे सकती है। फिलहाल सत्ता समीकरण और जातीय तनाव के बीच, मणिपुर का भविष्य अनिश्चितता के दौर में है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पूर्वोत्तर में कई सालों तक कार्य कर चुके हैं)
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