प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में कई क़ानूनों को बदला, नोटबंदी और जीएसटी जैसे क़दम भी उठाये, लेकिन एक क़ानून ऐसा था जिसमें वह बहुत चाहकर भी बदलाव नहीं कर पाए थे और वह था भूमि अधिनियम क़ानून 2013। इसको लेकर अध्यादेश भी लाया गया, लेकिन जब अध्यादेश की समय-सीमा 31 अगस्त 2015 को पूरी होने जा रही थी, उससे एक दिन पहले मोदी ने 'मन की बात' में कहा कि सरकार ने तय किया है कि इसे समाप्त होने दिया जाए और भूमि अधिग्रहण क़ानून में अब वही स्थिति बनी रहेगी जो पहले थी। पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के लिए यह बड़ी किरकिरी थी और कमज़ोर विपक्ष के लिए बड़ी जीत। मोदी सरकार अब पिछले के मुक़ाबले और अधिक बहुमत के साथ सरकार में आयी है और दूसरी सरकार के कार्यकाल का पहला संसद-सत्र शुरू हो चुका है। ऐसे में अब यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या वह पिछली बार की तरह अपने दूसरे कार्यकाल में भी प्राथमिकता ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को बदलने को ही देगी?
पश्चिम बंगाल में हुए सिंगूर और नंदीग्राम के घटनाक्रम के बाद तथा उत्तर प्रदेश में राहुल गाँधी के भट्टा पारसौल आन्दोलन से भूमि अधिग्रहण का मुद्दा उस दौर में राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गया था। यही नहीं, स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन यानी एसईज़ेड के नाम पर बड़े पैमाने पर ज़मीनों का अधिग्रहण भी इसका एक प्रमुख कारण बना था। इसके चलते मनमोहन सिंह की सरकार ने 2013 में विपक्षी पार्टियों के साथ व्यापक सलाह-मशविरा करके भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाया था। इस क़ानून की जो प्रमुख बातें थी वह थी-
- ज़मीन अधिग्रहण पर बाजार भाव से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा।
- निजी व सरकारी साझा परियोजनाओं के लिए 70% ज़मीन मालिकों की सहमति ज़रूरी।
- निजी परियोजना के लिए 80% ज़मीन मालिकों की सहमति की अनिवार्यता।
- 5 साल तक ज़मीन का इस्तेमाल नहीं होने पर मालिक को लौटाई जाएगी।
- अधिग्रहण में गड़बड़ी पर आपराधिक मामले दर्ज कर कारवाई की जायेगी।
इन बदलावों की वजह से यह क़ानून काफ़ी प्रभावी माना जाता था। इस नये क़ानून के लिए संसद के दोनों सदनों में सौ घंटों से ज़्यादा की बहस हुई, कई कमेटियों के हाथों से यह विधेयक गुजरा और बीजेपी समेत सभी विपक्षी दलों के साथ गहन चर्चा के बाद यह दोनों सदनों में भारी बहुमत से पारित हुआ था। इससे पहले भारत में भूमि अधिग्रहण का क़ानून अंग्रेज़ों के ज़माने से था। साल 1894 में जब अंग्रेज़ी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाया, तो उसका मकसद भारतीय किसानों की ज़मीन का मनमाना इस्तेमाल करना था। इस क़ानून के ज़रिए अंग्रेज़ अफ़सरों ने भारत में बड़े पैमाने पर ज़मीनों का अधिग्रहण किया। एक तरह से देखें तो यह क़ानून ईस्ट इण्डिया कंपनी के 1824 वाले बंगाल रेवेन्यू एक्ट का ही विस्तार था। उसमें कुछ छोटे-मोटे संशोधन पंडित नेहरू और इंदिरा गाँधी के वक़्त ज़रूर हुए थे, लेकिन मूल रूप से क़ानून सरकार के पक्ष में था, सरकार किसी की भी ज़मीन राष्ट्रहित के नाम पर छीन सकती थी। किसानों को मुआवजा ज़मीन की सरकारी दर पर ही मिलता था, जबकि ज़मीन की बाजार दर कई गुना ज़्यादा होती थी।
लम्बे अंतराल के बाद ज़मीन अधिग्रहण पर कोई क़ानून बना और कुछ ही महीनों बाद देश में नयी सरकार आते ही उसे रद्द करने के लिए जब संसद में प्रस्ताव आ गया तो हर मंच पर सवाल उठने लगा कि सरकार आख़िर क्यों नए संशोधन चाहती है?
विपक्ष के साथ-साथ संघ परिवार से जुड़े भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन भी इसका विरोध करने लगे थे। किसान संघ के प्रभाकर केलकर ने तो सरकार से सवाल भी पूछा कि मोदी सरकार निजी क्षेत्र के महंगे स्कूल-अस्पताल के लिए ज़मीन दिलवा कर क्या उनके दलाल का काम करेगी? अन्ना हजारे भी मैदान में कूद गये थे। अपने बचाव में मोदी सरकार ने तर्क दिया कि कांग्रेस के समय जो क़ानून बना था वह इतना जटिल और अव्यवहारिक है कि उसके अमल में आने के बाद एक भी इंच ज़मीन नहीं ली जा सकी है। लिहाज़ा मोदी सरकार ने 2013 के क़ानून में उद्योगपतियों द्वारा ज़मीन ख़रीदने में जो 70 फ़ीसदी किसानों और निर्भर लोगों की मंजूरी लेने की ज़रूरी शर्त थी उसे नये अध्यादेश में पूरी तरह से हटा दिया था।
यूपीए सरकार के क़ानून में पुनर्वास की व्यवस्था
यूपीए सरकार के क़ानून में था कि अधिग्रहित ज़मीन पर लगने वाली परियोजना का स्थानीय जनता पर क्या आर्थिक-सामाजिक असर होगा? इसका आकलन छह महीनों के भीतर ज़रूरी था। चूँकि यह बिल सिर्फ़ मुआवजे की नहीं, पुनर्वास की बात भी करता है, लिहाज़ा ऐसा आकलन करने से वे खेतिहर मज़दूर भी इसे दायरे में आते, जिनके पुनर्वास की व्यवस्था सरकार को करनी पड़ती। लेकिन मोदी सरकार के अध्यादेश में सामाजिक असर के आकलन को भी हटा दिया गया था। इसका मतलब है कि सरकार ने पुनर्वास को ख़त्म कर क़ानून को सिर्फ़ मुआवजे तक सीमित कर दिया था।
अधिग्रहित ज़मीनें बेकार क्याें पड़ी हैं?
यूपीए के क़ानून में कहा गया था कि अधिग्रहित की गयी ज़मीन का इस्तेमाल पाँच साल में नहीं हुआ तो ज़मीन किसानों को वापस कर दी जायेगी। अक्सर देखा गया है कि सरकार ज़मीन अधिग्रहित कर लेती है, फिर वह सालों तक बेकार पड़ी रहती है। कई मामलों में देखा गया है कि एसईज़ेड के लिए सस्ते दामों पर सरकार से ज़मीन ली गयी और उसे दूसरे उद्योगपतियों को महंगे दामों पर बेच दिया गया। मोदी सरकार ने पाँच साल की समय-सीमा भी हटा दी थी। यूपीए सरकार के क़ानून में ज़मीन अधिग्रहित करने की पहली शर्त यह थी कि बंजर ज़मीन ही ली जाये। अगर ऐसी ज़मीन एक साथ नहीं मिलती है तो ऐसी खेतिहर ज़मीन ली जाये जहाँ सिंचाई की सीधी व्यवस्था नहीं हो, यानी पानी दूर से लाना पड़ता हो। अगर ऐसी ज़मीन भी नहीं मिली तो ऐसी ज़मीन का ही अधिग्रहण किया जाये जिसमें साल में एक ही फ़सल पैदा होती है। साफ़ था कि बहुफ़सली ज़मीन का अधिग्रहण बेहद ज़रूरी होने पर ही करने की बात की गयी थी। लेकिन मोदी सरकार के अध्यादेश में राष्ट्रीय हित को देखते हुए बहुफ़सली ज़मीन के अधिग्रहण की इजाज़त थी। लेकिन राष्ट्रीय हित कैसे तय होगा, यह साफ़ नहीं कहा गया।
यूपीए सरकार के क़ानून में था कि ज़मीन अधिग्रहण में धोखाधड़ी या गड़बड़ी पर संबंधित धाराओं के तरह मुक़दमा चलाया जा सकता है। लेकिन मोदी सरकार द्वारा जो अध्यादेश लाया गया उसमें मुक़दमा चलाने से पहले सरकार से अनुमति लेने की बात कही गयी थी। अनुमति कितने समय में मिलेगी या नहीं मिलेगी, यह साफ़ नहीं किया गया।
ज़मीनों के कारण परियोजनाएँ अटकीं?
एनडीए सरकार तर्क देती रही है कि 70-80 फ़ीसदी लोगों की सहमति के कारण अधिग्रहण लगभग असंभव हो गया। उनका कहना है कि देश में 18 लाख करोड़ रुपये की परियाजनाएँ अटकी पड़ी हैं, जिनमें से 60 फ़ीसदी पीपीपी मोड के तहत आती हैं। मंजूरी की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि एक बस स्टॉप के लिए पीपीपी के तहत ज़मीन लेने में औसतन 59 महीने यानी पाँच साल लग जाते हैं। लेकिन इसके विपरीत ज़मीन अधिग्रहण को लेकर एक हक़ीकत सामने आयी थी वह और भी चौंकाने वाली थी। सैकड़ों निजी व सरकारी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए लाखों एकड़ अधिग्रहित ज़मीन अभी तक बिना किसी इस्तेमाल के पड़ी हैं। बहुत-सी सरकारी कम्पनियाँ बंद पड़ी हैं और उनकी हज़ारों एकड़ ज़मीन क्रोनि कैपिटलिज़्म के खेल में बड़े घरानों द्वारा हथियाई जा रही हैं।
नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में किसानों के कल्याण और उनकी आय को दुगना देने की बातें बहुत करते हैं। चुनाव से ठीक पहले और आचार संहिता के लागू रहते हुए भी उन्होंने किसानों के खातें में दो -दो हजार रुपये भेजने की योजना भी शुरू की। लेकिन किसानों की ज़मीन अधिग्रहण करने के मामले में उनकी सरकार के अध्यादेश का जो चेहरा और चरित्र नज़र आया था, क्या इस बार उसमें वह बदलाव लाएँगे या पिछली सरकार के प्रस्ताव को ही पास कराने का प्रयास करेंगे?
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