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‘इमरजेंसी’ की भूसी से तेल निकालने में झूठ परोस गयीं कंगना!

फ़्लॉप फ़िल्मों के सिलसिले का रिकॉर्ड बना रहीं बॉलीवुड अभिनेत्री और लोकसभा सांसद कंगना रनौत को फ़िल्म ‘इमरजेंसी’ से बहुत उम्मीद थी। उन्हें लगा था कि जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी बात-बात पर नेहरू-गाँधी ख़ानदान को कोसने के लिए ‘इमरजेंसी’ की लाठी का इस्तेमाल करते हैं, कुछ वही भाव जनता के बीच भी है। ‘मौक़े पर चौका’ मारने के अंदाज़ में उन्होंने ‘इमरजेंसी’ बनायी लेकिन बॉक्स ऑफ़िस कलेक्शन बताता है कि यह फ़िल्म बुरी तरह फ़्लॉप होने की ओर बढ़ रही है। पहले हफ़्ते हॉल की औसतन ब़ीस फ़ीसदी सीटें भी नहीं भर पा रही हैं।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से ‘भारत की आज़ादी की शुरुआत’ मानने वाली कंगना रनौत ने शायद पीएम मोदी की बॉयोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ के फ़्लॉप होने से सबक़ नहीं लिया। पीएम मोदी के जीवन से जुड़ी तमाम ‘कपोल कल्पनाओं’ को जोड़कर बनायी गयी इस फ़िल्म को कई बार ‘री-रिलीज़' किया गया लेकिन दर्शकों ने हर बार नकार दिया। शायद कंगना को लगा हो कि रुपहले पर्दे पर मोदी बने विवेक ओबरॉय के अभिनय में क़सर रह गयी थी जबकि उनकी जैसी सिद्ध अभिनेत्री इंदिरा के रूप में दर्शकों को लुभा ले जायेंगी। लेकिन हुआ उल्टा।
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आर्ट यानी कला के पीछे एजेंडा होना बुरा नहीं है अगर उद्देश्य शुभ हो। ‘डार्क’ स्थिति में भी असल कला ‘सत्यान्वेषण' से बँधी होती है और तमाम जटिलताओं को खोलते हुए आँख के जाले साफ़ करती है। उधर झूठ, किसी भी कला को ‘कला’ नहीं रहने देता और फ़िल्में तो तमाम कलाओं का कोलाज होती हैं। याद रखी जाने वाली तमाम फ़िल्में अपनी काल्पनिक उड़ान के बावजूद किसी न किसी सत्य से बँधी होती हैं। लेकिन ‘इमरजेंसी’ फ़िल्म का ट्रेलर ही खुला झूठ उगलता घूम रहा है जिसमें इंदिरा गाँधी अपने मुँह से ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ कहती दिखाई देती हैं जबकि यह जुमला देवकांत बरुआ का था जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे।
कंगना शायद भूल गयीं कि इंदिरा गाँधी का जीवन ‘इमरजेंसी’ से बहुत बड़ा है। वे बतौर स्वतंत्रता सेनानी आज़ादी की लड़ाई में जेल गयी थी और उनके जीवन का अंत राष्ट्रीय अखंडता के लिए शहीद के रूप में हुआ।
हरित क्रांति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स का ख़ात्मा, सिक्किम का भारत में विलय, बांग्लादेश का निर्माण (जिसने पाकिस्तान के दो टुकड़े ही नहीं, किए जिन्ना की द्विराष्ट्रवाद की थ्योरी को भी बेमानी बनाया), पोखरण में आणविक विस्फोट आदि तमाम ऐसी उपलब्धियाँ हैं जिन्होंने देश के मानस पर इंदिरा गाँधी की अमिट छाप छोड़ी है। लेकिन फ़िल्म बड़े शातिर तरीक़े से बताती है कि वे दरअसल, एक कुटिल और षड्यंत्रकारी महिला थीं जो सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती थीं। उनके तमाम ‘बड़े’ काम भी दरअसल, किसी निहित स्वार्थ या विपक्ष को दबाने के लिए थे।
स्वाभाविक है, कि झूठ का ये आख्यान जनता पचा नहीं सकी। एक वजह यह भी है कि इमरजेंसी के मुद्दे को इतना ‘पेरा’ जा चुका है कि अब इसकी भूसी से तेल निकलने की गुंजाइश नहीं बची है।
निश्चित ही इमरजेंसी लोकतंत्र पर एक धब्बा थी पर इसके लिए ख़ुद इंदिरा गाँधी भी माफ़ी माँग चुकी थीं। उन्होंने जनता पार्टी की सरकार के दौरान पेश किये गये संविधान के 44वें संशोधन के पक्ष में लोकसभा में वोट भी दिया था जो इमरजेंसी जैसी आशंका को सिर्फ़ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति तक सीमित कर रहा था।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ‘तानाशाह’ इंदिरा गाँधी ने किसी आंदोलन के भय से नहीं, अपने विवेक से डेढ़ साल पहले इमरजेंसी को ख़त्म करके चुनाव कराने की घोषणा की थी। जेल में बंद तमाम विपक्षी नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए छोड़ दिया गया था और चुनाव आयोग को भी पूरी स्वतंत्रता थी। उन्होंने चुनाव में मिली हार को सहज ढंग से स्वीकार किया और विपक्ष में बैठ गयीं। उनकी इस दुविधा को जनता ने महसूस किया था।
जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गाँधी का तरह-तरह से उत्पीड़न किया था। उन्हें जेल भी भेजा गया था। नतीजा ये रहा कि जनता ने इमरजेंसी की ग़लती को माफ़ कर दिया। 1980 के चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को 353 सीटें मिलीं जो 1971 के ग़रीबी हटाओ के नारे के गिर्द हुए चुनाव से एक ज़्यादा थी। इस चुनाव में विरोधियों ने इंदिरा की जीत पर ‘इमरजेंसी फिर लगने’ की आशंका का ज़ोर-शोर से प्रचार किया था, लेकिन जनता ने कान नहीं दिया और ऐतिहासिक जीत दिलाकर उन्हें फिर प्रधानमंत्री बना दिया। इसके बाद इमरजेंसी कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पायी।
यह भी याद रखना चाहिए कि इमरजेंसी एक विशेष परिस्थिति में लगायी गयी थी। 1971 में बांग्लादेश का निर्माण कराके इंदिरा गाँधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को जिस तरह झटका दिया था उसके बाद पलटवार के रूप में सीआईए की साज़िशों की बड़ी चर्चा थी।
1973 में चिली के समाजवादी राष्ट्रपति सल्वाडोर अलेंडे की हत्या और तख़्तापलट एक हक़ीक़त के रूप में सामने थी। 1975 में भारत के स्वतंत्रता दिवस यानी 15 अगस्त को बंगबंधु शेख़ मुजीबुर्रहमान की तमाम परिजनों के साथ ढाका में हुई हत्या ने पूरे उपमहाद्वीप में तनाव भर दिया था। इस साल की शुरूआत में रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बनाये गये मंच के नीचे टाइमबम लगाकर हत्या कर दी गयी थी। इसी बीच भारत में जो आंदोलन महंगाई के विरोध में शुरू हुआ वह 1974 में रेल हड़ताल से देश को ठप करने की कोशिशों तक जा पहुँचा था और साल भर बाद तो सेना और पुलिस के बग़ावत का आह्वान किया जाने लगा था। बहरहाल नेहरू की बेटी से उम्मीद की जाती थी के ज़्यादा बेहतर तरीक़े से हालात से निपटें। उन्होंने इमरजेंसी लगाने की चूक कर दी।
विडंबना ये है कि इस दौर में इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ अभियान चलाया जा रहा है जब मोदी सरकार देश पर 'अघोषित आपातकाल’ लगाने को लेकर दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के निशाने पर है।
इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी संवैधानिक प्रावधानों के तहत लगायी थी। इसकी बाक़ायदा घोषणा की गयी थी और एक तय मियाद भी थी। लेकिन आज बिना ऐसी कोई घोषणा किये तमाम संवैधानिक संस्थाओं को बेमानी बना दिया गया है। इंदिरा गाँधी के समय चुनाव आयोग कभी सत्ता-पक्षधरता की वजह से विपक्ष के निशाने पर नहीं आया लेकिन इस ‘अघोषित इमरजेंसी’ में उसकी साख रसातल में पहुँच गयी है। मोदी सरकार की कठपुतली बतौर उसकी चर्चा गाँव-गाँव हो रही है।
उधर, मोदी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले बिना ज़मानत सालों साल जेल में रहने को मजबूर हैं और मीडिया को बिना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती पालतू बनाकर विपक्ष पर भौंकने के लिए छोड़ दिया गया है।
इस ‘अघोषित इमरजेंसी’ के सामने इंदिरा की इमरजेंसी बच्चों का खेल लगती है। तब सुप्रीम कोर्ट ने इमरजेंसी के प्रावधानों को संविधान सम्मत बताया था जबकि आज के न्यायाधीश संविधान को ही ‘समय-सम्मत’ नहीं पा रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव तो बहुसंख्यकों की इच्छा से देश चलाने की दलील खुलेआम दे रहे हैं।
पीएम मोदी ने नेहरू-गाँधी परिवार के सम्मान पर हमला करने का कोई मौक़ा छोड़ा नहीं है। नेहरू जी का निवास स्थान रहे दिल्ली के तीन मूर्ति भवन से उनका नाम हटा दिया गया है (जबकि उनके उत्तराधिकारी शास्त्री जी का आवास उनकी स्मृति के रूप में सुरक्षित है।) और इंदिरा गाँधी के पराक्रम की याद दिलाने वाली 'अमर जवान ज्योति’ तीन साल पहले बुझा दी गयी जो इंडिया गेट पर पचास साल से जल रही थी (सरकार ने अजब तर्क दिया था कि उसका नवनिर्मित युद्ध स्मारक की ज्योति में विलय कर दिया गया गोया शहीदों की याद में दो जगह ज्योति जलाना ग़ैरक़ानूनी हो जाता।) इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने पिछले साल इमरजेंसी लागू करने की तारीख़ 25 जून को हर साल ‘लोकतंत्र हत्या दिवस’ के रूप में मनाने की अधिसूचना भी जारी कर दी।
एक और दिलचस्प बात ये है कि पचास साल पहले की इमरजेंसी के दो बड़े खलनायकों का रिश्ता अब बीजेपी से बन चुका है।
एक हैं संजय गाँधी और दूसरे जगमोहन। इमरजेंसी के दौरान नसबंदी अभियान चला था। इसमें हुई तमाम ज़्यादतियों के पीछे संजय गाँधी का दबाव माना जाता है जो 1977 में उत्तर भारत से कांग्रेस के सफ़ाये की असल वजह थी। उन्हीं संजय गाँधी की पत्नी मेनका गाँधी और बेटे वरुण गाँधी को बीजेपी में शामिल कर सांसद बनाया गया। मेनका गाँधी पहले वाजपेयी सरकार में मंत्री रहीं और फिर मोदी जी के पहले कार्यकाल में उन्हें केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया। वहीं दिल्ली में ग़रीबों का घर ढहाकर सौंदर्यीकरण करने वाले जगमोहन भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। 
ये वही जगमोहन हैं जिन्हें बीजेपी के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह ने जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया था और इन्हीं के कार्यकाल में पंडितों का घाटी से पलायन हुआ था।
वैसे, इमरजेंसी के बहाने कांग्रेस को कोसने वाले बीजेपी के तमाम नेता भूल जाते हैं कि उनके वैचारिक स्रोत आरएसएस के चीफ़ बाला साहेब देवरस ने आरएसएस कार्यकर्ताओं को जेल से मुक्त करने के एवज़ में इमरजेंसी के दौरान घोषित बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करने की पेशकश की थी। इस संबंध में उन्होंने इंदिरा गाँधी को एक से ज़्यादा पत्र लिखे थे। तमाम कोशिशों के बावजूद इंदिरा गाँधी तो देवरस से नहीं मिलीं पर आरएसएस और उससे जुड़े तमाम कार्यकर्ताओं को आंदोलन से दूर रहने की लिखित गारंटी लेकर छोड़ दिया गया था, यह इतिहास है। 
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निश्चित ही, इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का धब्बा और सबक़ लेने वाला प्रसंग है। और सबक़ यही हो सकता है कि किसी भी क़ीमत पर नागरिक अधिकारों को कुचलना न जाये। संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता को किसी भी क़ीमत पर नष्ट न किया जाये। अगर मौजूदा माहौल से आँख मूँदकर पचास साल पहले की 'बच्चा इमरजेंसी’ की याद दिलाकर राजनीतिक स्वार्थ साधने की फ़िल्म बनायी जाएगी तो जनता वैसा ही जवाब देगी जैसा कि कंगना रनौत को मिला है।
पुनश्च: ऐसा नहीं है कि ख़राब फ़िल्मों को व्यावसायिक सफलता नहीं मिलती। या सफल फ़िल्में हर हाल में अच्छी ही होती हैं। लेकिन जब दावा इतिहास पेश करने का हो तो सच्चाई बड़ी कसौटी हो जाती है। कंगना की ‘इमरजेंसी’ 'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ का खेल खेलते हुए सत्य को धुँधला बनाकर पेश करती है। जनता ने इंदिरा गाँधी को कंगना के नज़रिये से देखना पसंद नहीं किया।
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क़मर वहीद नक़वी
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