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लोकतंत्र को नापना हमेशा ही एक टेढ़ी खीर रही है लेकिन ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकाॅनमिस्ट’ 2006 से लगातार इसे नापने की कोशिश कर रही है। इस पत्रिका का एक सहयोगी संगठन है- ‘द इकाॅनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’। यह संगठन दुनिया भर के देशों को कई पैमानों पर नापने की कोशिश करता है और इन्हीं में एक पैमाना लोकतंत्र का भी बनाया गया है। यह संगठन हर साल एक डेमोक्रेसी इंडेक्स भी जारी करता है।
इस इंडेक्स में भारत हमेशा से ही त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में रखा जाता रहा है। दुनिया भर के देशों को चार श्रेणियों में बाँटा जाता है- पूर्ण लोकतंत्र, त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र, हाईब्रिड व्यवस्था और पूर्ण तानाशाही। इसके तहत सभी देशों में चुनाव व्यवस्था, निष्पक्ष चुनाव, प्लूयरलिज़्म और नागरिक अधिकारों की स्थिति को देखते हुए अंक दिए जाते हैं और तय किया जाता है कि वे किस स्थान के लायक हैं।
इस बार जो साल 2020 का इंडेक्स जारी हुआ है उसमें भारत 6.61 अंक के साथ 53वें स्थान पर रहा है। इस सूची में भारत में शुरू से ही खामियों वाला या त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र रहा है इस हिसाब से इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। लेकिन अंकों के आधार पर देखें तो भारत 2014 के बाद से लगातार पीछे होता गया है।
साल 2006 में जब यह इंडेक्स शुरू हुआ तो भारत के अंक थे 7.68। फिर इसमें घटत-बढ़त होती रही और 2014 में भारत के अंक 7.92 पर पहुँच गए। यह आँकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह आठ अंक से थोड़ा सा ही नीचे है और आठ अंक से ऊपर वाले देशों को पूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में रखा जाता है। यानी 2014 वह साल था जब इकाॅनमिस्ट ने यह मान लिया था कि भारत पूर्ण लोकतंत्र होने के काफ़ी क़रीब पहुँच गया है। यही वह साल था जब भारत में बड़ा सत्ता परिवर्तन हुआ और नरेंद्र मोदी की सरकार बनी।
2014 के बाद से भारत के अंक गिरने शुरू हो गए। 2019 में वे सात से भी नीचे 6.90 पर पहुँच गए और ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत 6.61 पर पहुँच गया है।
साल 2020 कोरोना संक्रमण का साल रहा है और दुनिया के बहुत सारे देशों में नागरिक अधिकारों में कटौती की गई है। इसी के चलते फ्रांस और पुर्तगाल जैसे देश पूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी से नीचे आकर त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसी दौरान जापान, ताईवान और दक्षिण कोरिया जैसे एशियाई देश त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी से ऊपर जाकर पूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में पहुँच गए हैं।
अगर हम इस मामले को ‘द इकाॅनमिस्ट’ से अलग हटकर भी देखें तो दुनिया के बहुत सारे दूसरे अध्ययन यही कहानी कह रहे हैं। जैसे इंटरनेट सेवा को समय-समय पर बंद करने को लेकर जो भी अध्ययन हैं वे यही बताते हैं कि इंटरनेट सेवा को बंद करने का काम सबसे ज़्यादा भारत में हो रहा है, और साल दर साल यह लगातार बढ़ता जा रहा है। एक ब्रिटिश संस्था टाॅप 10 वीपीएएन ने पिछले दिनों अपने आकलन में बताया था कि इंटरनेट सेवा ठप्प करने के कारण 2020 में भारत को 2.8 अरब डाॅलर का नुक़सान उठाना पड़ा है।
एक दूसरा आँकड़ा भी है जो सोशल मीडिया साइट ट्विटर ने जारी किया है। 2020 के पहले छह महीनों में भारत सरकार की तरफ़ से 2700 ट्वीट हटाने की माँग की गई जो 2019 के मुक़ाबले 254 प्रतिशत ज़्यादा है। और इस साल की तो शुरुआत में ही ऐसी ढेर सारी माँग सरकार की ओर से पहुँच चुकी है। सरकार की माँग को देखते हुए इस बार ट्विटर पत्रकारों और प्रमुख हस्तियों के एकाउंट पहले तो बंद कर दिए लेकिन फिर जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल उठा तो उन्हें बहाल कर दिया गया। जिसके लिए ट्विटर के ख़िलाफ़ कार्रवाई की बात भी कही गई है।
सोशल मीडिया साइट्स पर लिखने के लिए जिन लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर की गई है वे मामले इससे अलग हैं।
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