इज़राइल-हमास युद्ध पर संयुक्त राष्ट्र में आए प्रस्ताव से भारत ने खुद को अलग कर लिया है। प्रस्ताव में इज़राइल-हमास संघर्ष में तत्काल मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान किया गया था। 7 अक्टूबर को हमास के हमले के तुरंत बाद इज़राइल के समर्थन में खड़ा होने वाले रवैये के बाद अब भारत के रुख में बदलाव आया है और इसने फिलीस्तीन पर अपनी पुरानी नीति को दोहराया है। लेकिन इस बीच जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में मुद्दा उठा तो भारत ने खुद को उससे अलग कर लिया।
संयुक्त राष्ट्र महासभा यानी यूएनजीए के 193 सदस्य 10वें आपातकालीन विशेष सत्र में फिर से जुटे थे। जॉर्डन द्वारा पेश तत्काल मानवीय संघर्ष विराम के मसौदा प्रस्ताव पर मतदान किया गया। इस प्रस्ताव को बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, रूस और दक्षिण अफ्रीका सहित 40 से अधिक देशों के सहयोग से लाया गया। इस प्रस्ताव को भारी बहुमत से अपनाया गया। 120 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया, 14 ने इसके खिलाफ और 45 देशों ने मतदान नहीं किया। मतदान नहीं करने वालों में भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन और यूके आदि शामिल थे।
120 in favor
— United Nations (@UN) October 27, 2023
14 against
45 abstentions
Countries adopt resolution calling for immediate & sustained humanitarian truce in the Middle East during an Emergency Special Session of #UNGA. https://t.co/XjKyOXQqu8 pic.twitter.com/nDh3Qj3MtV
संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट के अनुसार महासभा ने एक प्रमुख प्रस्ताव अपनाया, जिसमें दुश्मनी ख़त्म करने के लिए तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान किया गया। प्रस्ताव जॉर्डन द्वारा प्रस्तावित किया गया था और 45 से अधिक सदस्य देशों द्वारा समर्थित था।
प्रस्ताव पर वोटिंग से पहले कनाडा द्वारा प्रस्तावित और अमेरिका सहित 35 से अधिक सदस्य देशों द्वारा समर्थित एक संशोधन को पेश किया गया जिसमें हमास की साफ़ तौर पर निंदा की मांग की गई थी। लेकिन इसको दो-तिहाई समर्थन नहीं मिल पाया और इस वजह से यह पारित नहीं हो पाया। प्रस्ताव पर बहस के दौरान कई देशों ने नागरिकों पर संकट के प्रभाव को दोहराया और भोजन, पानी और ईंधन की आपूर्ति के गंभीर स्थिति में पहुँचने का ज़िक्र किया। आपातकालीन विशेष सत्र मंगलवार को फिर से बुलाया जाएगा, जिसमें देश अपनी बहस जारी रखेंगे।
इससे पहले 7 अक्टूबर को इज़राइल-हमास युद्ध शुरू होने के बाद से भारत की नीति को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे। ऐसा इसलिए कि हमले के तुरंत बाद पीएम मोदी ने इज़राइल के साथ खड़े होने का संकेत दिया था।
जब इस पर सवाल उठने लगे तो विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया कि इजराइल-फिलिस्तीन पर भारत का रुख पहले की तरह ही जस का तस है और इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। यही बात खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी तब कही जब उन्होंने फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से बातचीत की।
उन्होंने ट्वीट में कहा था, 'फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण के राष्ट्रपति महामहिम महमूद अब्बास से बात की। ग़ज़ा के अल अहली अस्पताल में नागरिकों की मौत पर अपनी संवेदना व्यक्त की। हम फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए मानवीय सहायता भेजना जारी रखेंगे। क्षेत्र में आतंकवाद, हिंसा और बिगड़ती सुरक्षा स्थिति पर अपनी गहरी चिंता साझा की। इजराइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर भारत की लंबे समय से चली आ रही सैद्धांतिक स्थिति को दोहराया।' इससे पहले पीएम लगातार इज़राइल के समर्थन की बात कहते रहे थे। 7 अक्टूबर के हमले के तुरंत बाद ही उन्होंने इज़राइल के साथ खड़े होने की बात कहते हुए ट्वीट कर दिया था। बाद में भी वह फिर से वही बात दोहराते रहे थे। इसी वजह से लगातार सवाल उठ रहे थे कि क्या पीएम मोदी ने भारत की विदेश नीति फिलिस्तीन को लेकर बदल दी है?
13 अक्टूबर को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक बयान में कहा था, 'इस संबंध में हमारी नीति लंबे समय से और लगातार वही रही है। भारत ने हमेशा सुरक्षित और मान्यता प्राप्त सीमाओं के भीतर रहने वाले एक संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य फिलिस्तीन राज्य की स्थापना और इजराइल के साथ शांति से रहने के लिए सीधी बातचीत बहाल करने की वकालत की है।'
बता दें कि भारत ने शुरुआत से ही फिलिस्तीन के मुद्दे का समर्थन किया है। 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलिस्तीन के विभाजन के खिलाफ मतदान किया था। फिलिस्तीन के नेता यासर अराफात कई बार भारत आए। उनके इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के नेताओं से अच्छे संबंध रहे। 1999 में तो फिलिस्तीनी नेता यासर अराफात तत्कालीन पीएम वाजपेयी के घर पर उनसे मिले थे।
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