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मोदी की विदेश नीति की वजह से 'हिन्दू राष्ट्र' नेपाल बन गया भारत विरोधी?

भारत का पारंपरिक मित्र नेपाल देखते देखते इसके विरोधियों की तरह व्यवहार करने लगा। यह कैसे हो गया? क्या इसके लिए भारत की कूटनीति ज़िम्मेदार है? क्या नेपाल भी भारत की तरह अंध राष्ट्रवाद के रास्ते पर दौड़ रहा है? बता रहें लेखक मुकेश कुमार सिंह। 
मुकेश कुमार सिंह
भारत के करोड़ों लोगों के मन में इन दिनों बार-बार यह सवाल कौंध रहा है कि आख़िर क्यों हमारा सदियों पुराना दोस्त नेपाल भी अब दुश्मनों की तरह पेश आ रहा है? मौजूदा दौर में चीन और पाकिस्तान की हरक़तों को लेकर अनेक बातें कही जाती हैं, लेकिन नेपाल के तेवर हमारे राजनयिकों, हुक़्मरानों और थिंक- टैंक के भी गले नहीं उतर रहा। साफ़ दिख रहा है, नेपाल की मौजूदा राजनीति भी उसी छद्म राष्ट्रवाद ही राह पर चल रही है, जिसका भारत में भी ज़बरदस्त बोलबाला है।  
जिस तरह भारत में राजनीति चमकाने के लिए पाकिस्तान और मुसलमानों को बात-बात पर घसीटा जाता है, उसी तरह नेपाल की राजनीति में भी शक्तिशाली और विशाल भारत से नहीं डरने की होड़ अपनी पैठ जमा चुकी है।
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जिस तरह भारत में राजनीति चमकाने के लिए पाकिस्तान और मुसलमानों को बात-बात पर घसीटा जाता है, उसी तरह नेपाल की राजनीति में भी शक्तिशाली और विशाल भारत से नहीं डरने की होड़ अपनी पैठ जमा चुकी है।
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि वहाँ मधेसी यानी ‘तराई में रहने वाली आबादी’ के प्रति नफ़रत का भाव अभी उतना गहरा नहीं है, जितना भारतीय मुसलमानों के प्रति फैलाया जा चुका है। लेकिन यह ख़तरा भी ज़्यादा दूर नहीं है।

नस्लवादी राजनीति

नेपाल में मधेसियों की बड़ी आबादी होने के बावजूद नेपाली संसद में इनकी धाक कम है। 2008 में राजशाही के पतन के बाद से 3 करोड़ की आबादी वाले नेपाल पर पहाड़ी और मधेसी वाली नस्लवादी राजनीति हावी रही है। मधेसियों का ही भारत से रोटी-बेटी वाला रिश्ता है। इनके पास ही नेपाल की कृषि, उद्योग-धन्धों और व्यापार की कमान है।
पहाड़ी इलाकों में पर्यटन और परदेस से आने वाली प्रवासी नेपाली मज़दूरों की कमाई ही आमदनी का मुख्य ज़रिया है। नेपाल तराई के 22 जिलों  में एक करोड़ से ज़्यादा मधेसी हैं। नेपाल के मूल निवासियों की नजर में ज़्यादातर मधेसी पूरी तरह नेपाली नहीं माने जाते। 

मधेसी आन्दोलन से बढ़ा भारत-विरोध

नेपाल की राजनीति में मधेसी उपेक्षित हैं। नेपाल की संसद में 275 सांसद है। इसमें से मधेसी दलों के सिर्फ़ 33 सदस्य हैं। वहाँ पहाड़ी क्षेत्र की महज सात-आठ हजार की आबादी पर एक सांसद है तो तराई की 70 हज़ार से लेकर एक लाख की आबादी से एक प्रतिनिधि संसद पहुँचता है। मधेसियों में 56 लाख लोगों को नेपाल की नागरिकता हासिल नहीं है। इन्हें भारतीय घुसपैठिया माना जाता है।

2008 में जब देश में नया संविधान बनाने की क़वायद शुरू हुई, उसी समय से पहाड़ी नेता राजनीति में अपना वर्चस्व क़ायम रखने के लिए तरह-तरह की तिकड़में लगाते रहे हैं। इसी अलगाववाद ने दशकों तक नेपाल का संविधान नहीं बनने दिया।

भारत से सीखा नेपाल ने?

नेपालियों को भारत ने बहुत क़रीब से दिखाया है कि छद्मराष्ट्रवाद से शानदार ज़ुबानी मिसाइल और कुछ नहीं हो सकती। इसके लिए नेपालियों को भी अनुच्छेद 370, राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता, नागरिकता क़ानून और नैशनल पॉपुलेशन रज़िस्टर जैसे प्रोटोटाइप की ज़रूरत पड़ती रही है।
इसीलिए, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को पिथौरागढ़-धारचूला से लिपुलेख को जोड़ने वाली सड़क का उद्घाटन किया तो 20 मई को नेपाली प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली का सख़्त बयान आया कि कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा हमारा इलाक़ा है। भारत ने इस पर अवैध कब्ज़ा कर रखा है, इसीलिए हम इसे वापस लेकर रहेंगे।

सीमा विवाद की पृष्ठभूमि

जिस वक़्त इस सड़क का निर्माण शुरू हुआ था, तब यही ओली बतौर विदेश मंत्री शिलान्यास कार्यक्रम में शामिल हुए थे। लेकिन प्रधानमंत्री ओली सिर्फ़ बयान देकर ख़ामोश नहीं रहे। उन्होंने अपने राष्ट्रवादी तेवर के मुताबिक़, आनन-फानन में देश का नया राजनीतिक मानचित्र बनवाकर उसे अपनी कैबिनेट से पास करवा लिया। फिर 13 जून को इसे नेपाली संसद के निचले सदन की भी मंज़ूरी दिला दी।

ओली को कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि नेपाल में जो भी सरकार के इस कदम के ख़िलाफ़ चूँ भी करता, उस पर फ़ौरन राष्ट्रद्रोही और भारत का दलाल होने का ठप्पा लग जाता।
इसीलिए सारा वाकया बिल्कुल वैसे ही हुआ जैसे भारतीय संसद ने अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया था या जैसे हमारी संसद ने सीएए बनाया था। इसकी एक और पृष्ठभूमि भी है। भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने मिलकर देश का नया राजनीतिक मानचित्र बनवाया। यह 2 नवम्बर 2019 को जारी हुआ था।

पहले भारत ने बनवाया नक्शा

इस नक्शे में कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख के इलाकों  को भारतीय क्षेत्र बताया गया है। इसे लेकर नेपाल ने उसी वक़्त आपत्ति भी जतायी थी। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि नक्शे में नेपाल से सटी सीमा में कोई बदलाव नहीं है। ये तो सिर्फ़ भारत के संप्रभु क्षेत्र को दर्शाता है। तब विदेश मंत्रालय ने विवाद को बातचीत से सुलझाने का कोई वास्ता नहीं दिया।
इसीलिए सही मौका देख ओली सरकार ने इसे नेपाल की आपत्तियों की अनदेखी और शक्तिशाली तथा बड़े पड़ोसी देश की हेकड़ी की तरह पेश किया ताकि उसके राष्ट्रवादी एजेंडे को नयी हवा मिल सके। 

भारत विरोधी नैरेटिव

फ़िलहाल, भारत के ज़्यादा क़रीबी समझे जाने वाले मधेसी नेता और उनकी पार्टियाँ भी ‘भारत विरोधी नेपाल’ वाले नैरेटिव से ‘हाँ में हाँ’ मिला रहे हैं या फिर दबी ज़ुबान में ही ओली सरकार का विरोध कर रहे हैं। इसी में उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित दिख रहा है।

नेपाली समाज में भी सत्ता चमकाने के लिए पहाड़ियों और मधेसियों का वैसा ही ध्रुवीकरण हो चुका है, जैसा भारत के राष्ट्रवादियों ने हिन्दू-मुसलिम नैरेटिव के ज़रिये कर दिखाया है।
वहाँ मधेसी अब तलवार की ऐसी धार पर चल रहे हैं कि वे यदि भारत के पक्ष में न्यायोचित बातें भी कहेंगे तो भी उन्हें फ़ौरन वैसे ही राष्ट्रद्रोही बनाकर खदेड़ा जाएगा, जैसे हम काँग्रेस मुक्त भारत बनाने और मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की धमकियाँ सुनते रहे हैं।

ग़लत विदेश नीति

दरअसल, नेपाल को लेकर नरेन्द्र मोदी सरकार की विदेश नीति शुरुआत से ही ग़लत रही है। 2014 में सत्ता सम्भालते ही नरेन्द्र मोदी ने हिन्दू-बहुल नेपाल को अघोषित तौर पर बीजेपी शासित प्रदेश का तरह देखना शुरू कर दिया।
इसीलिए अप्रैल 2015 में नेपाल में आये भीषण भूकम्प के वक़्त नरेन्द्र मोदी और उनके चहेते मीडिया ने मदद और राहत की ऐसी कवरेज़ की जो ब्रान्ड मोदी के लिए भले ही उपयोगी लगे, लेकिन इससे नेपालियों के स्वाभिमान को गहरी चोट लगी। यही सिलसिला मोदी की सभी नेपाल यात्राओं में भी दिखा। 

आर्थिक नाकेबंदी

भारत-विरोधी नेपाल का अगला नैरेटिव गरमाया अक्टूबर-नवम्बर 2015 के मधेसियों के आन्दोलन के दौरान। तब नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ईंधन और ज़रूरी सामान की भारी किल्लत हो गयी क्योंकि करीब दो महीने तक रक्सौल बॉर्डर बन्द रहा।
मधेसियों के उस आन्दोलन को भारत ने नेपाल के आन्तरिक मामले की तरह पेश किया जबकि पहाड़ियों के वर्चस्व वाली देश की राजनीतिक सत्ता ने इसे भारत की मिलीभगत की तरह देखा। उन्हें अपनी संवैधानिक ख़ामियों के अंज़ाम की ठीकरा भारत के सिर पर फोड़ने का मौका मिल गया।

नये भारत जैसा है नया नेपाल

ओली को यह दिखाने का मौका मिल गया कि उन्हें भारत की कोई परवाह नहीं है, क्योंकि वो जिस नेपाल के नेता हैं वह स्वतंत्र राष्ट्र है। जैसे भारत में ‘नया भारत’ का नारा उछाला जाता है वैसे ही वहाँ भी ‘नया नेपाल’ है, जिसे कोई भारत का पिछलग्गू नहीं कह सकता।

इसे साबित करने के लिए ओली ने चीन से नज़दीकी बढ़ा ली। फिर जब नेपाल पर चीन का खिलौना बनने का आरोप लगने लगा तो ग़रीब नेपाल में नया राष्ट्रवादी नैरेटिव पैदा हुआ कि नेपाल किसी से डरता नहीं, किसी के दबाब में आकर फ़ैसले नहीं लेता।
इस नैरेटिव की माँग थी कि जो नेपाली नेता भारत को जितना ललकारेगा, जितना धिक्कारेगा, उसकी राजनीति उतनी ज़्यादा चमकेगी।

बढ़ता गया भारत-विरोध

दुर्भाग्यवश, भारतीय विदेश नीति ऐसे तमाम नैरेटिव से अंजान बनी रही। भारतीय नेताओं ने नेपाल की चीन से बढ़ती नज़दीकी पर जितना कटाक्ष किया, नेपाली नेताओं को भारत विरोधी तेवर दिखाने का उतना ही और मौका मिलता गया।
मसलन, हाल ही में भारतीय थल सेना अध्यक्ष का यह कहना कि हमें मालूम है कि नेपाल किसके इशारे पर चल रहा है। या योगी आदित्यनाथ का वह बयान जिसमें वह नेपाल को तिब्बत का उदाहरण देकर चीन से सावधान रहने की बात करते हैं। कूटनीतिक परम्पराओं के लिहाज़ से जनरल नरवणे और मुख्यमंत्री को ऐसे बयानों से परहेज़ करना चाहिए था। 

भारत- विरोध का चेहरा बने ओली

दरअसल, ‘नया नेपाल’ के लोग भारत पर अपनी निर्भरता को अपनी बेड़ियाँ नहीं समझना चाहते। जो प्रधानमंत्री ओली आज भारत विरोध का सबसे बड़ा चेहरा हैं, कभी उनकी छवि भारत समर्थक वाली थी।
ओली ने 1996 में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर अपनी पार्टी इसलिए बनायी थी कि वह भारत और नेपाल के बीच महाकाली नदी जल समझौते के पक्ष में थे, जबकि उनके साथी नेता नहीं थे।
यह वही नदी है जिसके पूर्वी तट को भारत, 1816 की सुगौली सन्धि के मुताबिक, नेपाल की सीमा बताता है और जिसके पश्चिमी तट पर कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा जैसे इलाके हैं।

भारत-समर्थक की हार

ओली का भारत विरोधी नज़रिया 2015 में तब शुरू हुआ जब नेपाल में संविधान निर्माण की कवायद के दौरान मधेसियों के आन्दोलन के बीच नेपाल में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में ऐन वक़्त पर सुशील कोइराला के ख़िलाफ़ ओली ने ताल ठोंक दी थी। चुनाव में ओली ने भारत समर्थित माने गये कोइराला को हरा दिया। 

यहीं से नेपाली राष्ट्रवाद का जो नया नैरेटिव पैदा हुआ, उसके चलते ओली का भारत के प्रति मन बदल गया। देखते ही देखते ‘भारत-विरोध’ नेपाल की राजनीति की धुरी बन गयी। 

अगले साल 2016 में ओली ने भारतीय हितों की अनदेखी करके चीन से ऐसी संधि की जिससे नेपाल को शुष्क बंदरगाहों, रेल लिंक सहित बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के तहत चीनी इलाक़ो से जुड़ने का सीधा रास्ता मिल गया।

भारत- विरोध से मिली जीत

अगले साल 2017 में ओली के सामने प्रचंड यानी पुष्प कमल दहाल के धड़े की बगावत खड़ी हो गयी। ओली ने इसे ‘भारत के इशारे पर’ हुई बग़ावत की तरह पेश किया। चुनाव में एक बार फिर ओली का भारत विरोधी नेपाली राष्ट्रवाद परवान चढ़ा और उन्हें जीत मिली।
बहरहाल, ओली की राजनीति को, उनके नेपाली राष्ट्रवाद को वक़्त रहते नहीं भाँप पाने का नतीज़ा यह रहा कि नेपाल पर चीन की पकड़ मज़बूत होती चली गयी और भारत का एक पुराना मित्र राष्ट्र इससे बहुत दूर चला गया। अब तो नेपाल की जो पार्टी भारत के ख़िलाफ़ जितना जहर उगलेगी, उसे जनता का उतना अधिक समर्थन मिलेगा। 

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