क्या मौजूदा केंद्र सरकार को सामान्य आलोचना भी बर्दाश्त नहीं? और क्या उसे पत्रकारों, स्तंभकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सरकार के ख़िलाफ़ बोलना पसंद नहीं है? और मौक़ा मिलते ही उन्ह सबक सिखाने की कोशिश करती है? हाल की दो घटनाओं से तो यह संदेश साफ है।