बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सर्वे एजेंसियों ने एग्जिट पोल में सबसे पहले अपने ही प्री-पोल सर्वे को झुठलाया था। तीन दिन भी नहीं बीते थे कि 10 नवंबर को ये सारे एग्जिट पोल एक साथ धराशायी हो गये। एग्जिट पोल का ग़लत होना अधिक आश्चर्यजनक है क्योंकि इसे आम तौर पर सटीक माना जाता रहा है। बिहार में लगातार यह दूसरा चुनाव है जब एग्जिट पोल ग़लत साबित हुए हैं। इससे एग्जिट पोल की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं।
पहले भी एग्जिट पोल के नतीजे वास्तविक नतीजों से अलग रहे हैं और इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे हैं। ऐसे 5 मामलों पर गौर करें-
- 2019 के एग्जिट पोल में हरियाणा में बीजेपी के पूर्ण बहुमत की भविष्यवाणी ग़लत साबित हुई थी। कांग्रेस की करारी हार का अनुमान भी ग़लत साबित हुआ था। 90 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी को गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी थी जबकि कांग्रेस ने 31 सीटें जीती थीं।
- 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला बताया गया था लेकिन लेकिन कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला।
- 2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव में एग्जिट पोल ने बताया था कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच कांटे की टक्कर है। जब नतीजे सामने आए तो आम आदमी पार्टी कहीं सीन में नहीं थी। कांग्रेस की सरकार बन गयी।
- 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में एग्जिट पोल ने आम आदमी पार्टी के लिए बहुमत की भविष्यवाणी तो की थी लेकिन 70 सीटों में से 67 सीटें पार्टी जीत जाएगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था।
- 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में एग्जिट पोल में एनडीए की जीत की बात कही गयी थी लेकिन महागठबंधन ने दो-तिहाई बहुमत हासिल कर इसे झुठला दिया था।
सवाल यह है कि एग्जिट पोल लगातार क्यों फेल हो रहे हैं? पिछली ग़लतियों से कुछ सीख क्या नहीं ली गयी है? क्या आगे भी एग्जिट पोल ऐसे ही ग़लत होते रहेंगे? इन सवालों के जवाब तभी मिलेंगे जब कम से कम दो बातें सुनिश्चित होंगी-
- एग्जिट पोल का पेशेवर स्वरूप बरकरार रहे
- यह किसी प्री पोल की लीपापोती करने के मकसद से ना हो
एग्जिट पोल के पेशेवर स्वरूप को बरकरार रखने का अर्थ है कि वे हरसंभव प्रयास किए जाएं जिससे इसके सटीक होने की गुंजाइश कम से कम हो। हर वर्ग के मतदाताओं को कवर करना, अधिक से अधिक बूथ तक पहुंच बनाना, सामाजिक और राजनीतिक पैटर्न को समझना, मतदाताओं के व्यवहार की समझ जैसी तमाम बातें एग्जिट पोल के मैकेनिज्म का हिस्सा होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि कोविड-19 के कारण या किसी अन्य कारण से भी इस प्रतिबद्धता में कमी आयी है।
चूंकि एग्जिट पोल करने वाली ज्यादातर एजेंसियां प्री-पोल सर्वे भी करती हैं और इस वजह से वे अपनी छवि को लेकर संवेदनशील हो जाती हैं और एग्जिट पोल पर उसका प्रभाव दिख जाता है। इस बार भी बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में तेजस्वी यादव के प्रति लोगों के रुझान ने एग्जिट पोल एजेंसियों को चौंका दिया। इसका असर साफ तौर पर नज़र आया।
तीसरे और अंतिम चरण के चुनाव के बाद जब 7 नवंबर को एग्जिट पोल सामने आए तो ये सभी अलग-अलग नतीजे दे रहे थे। इनमें एकरूपता का अभाव था। पांच एग्जिट पोल की तुलना नीचे दी गयी है जिनमें तीन एनडीए की निश्चित हार बता रहे थे। एक में एनडीए की सरकार बन रही थी। एक अन्य में सीटों की रेंज दी गयी थी जिसके अनुसार एनडीए की सरकार बन भी सकती थी और नहीं भी।
आखिर ऐसा क्यों हुआ?
एग्जिट पोल में महागठबंधन को जीतता हुआ दिखाया गया था। दो प्रमुख एग्जिट पोल ने तो 160 और 180 सीटें महागठबंधन को मिलने की तसवीर सामने रख दी थी। ये दोनों ही ‘सबसे ज्यादा सटीक’ एग्जिट पोल देने का दावा करने वालों में थे। मगर, दोनों ही फेल ही नहीं, फिसड्डी साबित हुए। एग्जिट पोल को इस कदर बुरी तरह फेल होते पहले नहीं देखा गया था। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
एग्जिट पोल की यह बड़ी विसंगति है कि वोटरों तक सही तरीके से इसकी पहुंच नहीं रही या इसका सैम्पल साइज छोटा था। सवाल यह है कि ऐसे में इसे एग्जिट पोल क्यों बोलें? क्या यह एग्जिट पोल की विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं है?
महिला वोटरों के अधिक तादाद में निकलने से एग्जिट पोल की सच्चाई पर असर हुआ, यह कारण अजीबोगरीब लगता है। अगर यह बात सच है कि पहले चरण में महागठबंधन को अच्छी सफलता मिली क्योंकि महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले मामूली रूप से ज्यादा मतदान किया था और बाद के दो चरणों में परिणाम महागठबंधन के विरुद्ध गये क्योंकि उनकी भागीदारी बहुत अधिक बढ़ गयी थी तो सवाल यह है कि एग्जिट पोल इस तथ्य को पकड़ क्यों नहीं पाया?
एग्जिट पोल के ग़लत होने से जुड़ी ऐसी सफाई पर संदेह इसलिए होता है क्योंकि अगर यह बात सही होती तो जेडीयू के परिणाम इतने बुरे नहीं होते क्योंकि महिला वोटरों का सबसे ज्यादा आकर्षण जेडीयू के लिए ही माना जाता रहा है।
सवाल ही सवाल
अलग-अलग चरणों में वोट का पैटर्न अलग-अलग होता है यह जानते हुए भी एग्जिट पोल में इस तथ्य की अनदेखी हुई। युवाओं का रुझान तेजस्वी के पक्ष में दिख रहा था। ऐसा लगता है कि इसे समझते समय इस बात की अनदेखी की गयी कि युवाओं में महिलाएं भी थीं जिनका एनडीए के प्रति झुकाव बताया जा रहा है। अगर पैटर्न समझ कर एग्जिट पोल हो रहे थे तो यह कैसा पैटर्न था कि महागठबंधन के लिए 180 सीटों का अनुमान सामने रख दिया गया और वास्तव में यह 110 निकला! एग्जिट पोल ने किस तरीके से पैटर्न पढ़ा कि 91 सीटों का अनुमान एनडीए के लिए 125 में बदल गया!
एग्जिट पोल अगर युवा वोटरों और महिलाओं के तेवर को ही नहीं समझ सके तो ये सही कैसे हो सकते हैं! ऐसा नहीं है कि एग्जिट पोल सिर्फ बिहार में ही फेल हुए हैं। बिहार में तो लगातार दूसरी बार फेल हुए हैं।
एग्जिट पोल की ताजा असफलता को जीत और हार के अंतर से भी जोड़ा जा सकता है। बल्कि, यह कारण अधिक विश्वसनीय लगता है। बिहार विधानसभा चुनाव में 40 सीटें ऐसी रहीं, जहां जीत-हार का अंतर 3500 से कम रहा। इन सीटों के बारे में एग्जिट पोल के लिए अनुमान लगाना वाकई मुश्किल था।
इन 40 सीटों में 21 सीटें एनडीए ने जीतीं और 17 सीटें महागठबंधन ने। 11 सीटें तो ऐसी रहीं जहां जीत-हार का फैसला हजार वोटों से भी कम अंतर से हुआ। जाहिर है कि ऐसी सीटों पर एग्जिट पोल के पास सटीक निष्कर्ष बताने का कोई मैकेनिज्म नहीं है।
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