वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए 215 करोड़ रुपये जमा कराए गए, इनमें से 95 प्रतिशत यानी 210 करोड़ रुपये एक दल यानी भारतीय जनता पार्टी की झोली में गए। बाकी 5 करोड़ रुपये कांग्रेस को मिले।
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
इलेक्टोरल बॉन्ड दरअसल एक तरह का फ़ाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट यानी वित्तीय साधन है, जिससे कोई किसी दल को चंदा दे सकता है। यह प्रॉमिसरी नोट की तरह होता है और बियरर चेक की तरह इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। यानी, जो पार्टी इसे बैंक में जमा करा देगी, उसके खाते में ही यह पैसा जमा कर दिया जाएगा। इलेक्टोरल बॉन्ड्स 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये और 1 करोड़ रुपये का लिया जा सकता है। इसे कोई भी नागरिक या कंपनी स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीद सकता है, उसे अपने प्रमाणित खाते से इसका भुगतान करना होगा। लेकिन उसका नाम-पता कहीं दर्ज़ नहीं होगा। वह किस पार्टी को यह बॉन्ड दे रहा है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा। यह 15 दिनों तक वैध रहेगा। हर साल जनवरी, अप्रैल, जून और अक्टूबर में बैंक इसे देना शुरू करेगा और 30 दिनों तक दे सकेगा।पारदर्शिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन
अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन जैसे देशों में राजनीतिक चंदा देने वाले को अपनी पहचान को सार्वजनिक करना होता है। भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी। लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया है। इसके अलावा यह व्यवस्था भी की गई है कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।न तो इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का पता चलता है और न ही इसके ज़रिए जिसे पैसे दिए जा रहे हैं, उसका पता चलता है। राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में यह दर्ज नहीं होता है और चुनाव आयोग को इसकी कोई जानकारी नहीं होती है।
काले धन को बढ़ावा
इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है। इसका नतीजा यह होगा कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकेंगे। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।“
राजनीतिक दलों के कॉरपोरेट फन्डिंग में जो थोड़ी बहुत पारदर्शिता बची हुई है, इलेक्टोरल बॉन्ड उसे भी ख़त्म कर देगा। सालाना लाभ के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं देने का प्रावधान ख़त्म कर देने का बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। बहुत जल्द ऐसी कंपनियाँ दिखेंगी, जो अपना पूरा पैसा राजनीतिक पार्टी को दे देगी और इस तरह राजनीति पर कब़्जा कर लेंगी।
एस. वाई. क़ुरैशी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
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इलेक्टोरल बॉन्ड्स सूचना के अधिकार का उल्लंघन है, यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत के भी ख़िलाफ़ है। अदालत में चुनौती दिए जाने पर इलेक्टोरल बॉन्ड टिक नहीं पाएगा।
सुभाष कश्यप, संविधान विशेषज्ञ
वित्त मंत्री ने इलेक्टोल बॉन्ड को अधिक प्रभावी बनाने के लिए आयकर क़ानून, फ़ॉरन रेगुलेशन कंट्रीब्यूशन एक्ट, कंपनी एक्ट और वित्त अधिनियम में भी संशोधन किया।
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