राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन भले ही यह दावा करें कि रामलला स्वयं बाबरी मसजिद में प्रकट हुए थे, सच यह है कि 22 दिसंबर 1949 की रात को 5 लोगों ने एक साज़िश के तहत मसजिद के अंदर घुस कर मूर्तियाँ रख दी थीं।
क्या हुआ था उस रात?
अयोध्या में 22 दिसंबर की रात घुप अंधेरे में 5 लोग सरयू नदी के किनारे जमा हुए। अलग-अलग पृष्ठभूमि और इलाक़े के इन लोगों में एक ही समानता थी कि वे एक बड़ी साज़िश का हिस्सा थे और गुपचुप एक काम को अंजाम देने आए थे। ये थे गोरक्ष पीठ के महंत दिग्विजय नाथ, देवरिया के अहिन्दीभाषी संत बाबा राघवदास, निर्मोही अखाड़ा के बाबा अभिराम दास, दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस और गीता प्रेस, गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ़ ‘भाई जी’। क्या था टोकरी में?
ये लोग सरयू तट पर उस जगह जमा हुए, जिसके बारे में मान्यता है कि राम ने जल समाधि ली थी। कड़कड़ाती ठंड के बीच घुप अंधेरे में इन लोगों ने सरयू में स्नान किया। पोद्दार अपने साथ राम के बचपन की एक मूर्ति ले गए थे।
सरयू में स्नान करने के बाद पाँचों लोगों ने नए कपड़े पहने, रामलला की मूर्ति की पूजा की और उसे बाँस की एक टोकरी में रख कपड़े से ढँक दिया। बाबा अभिराम दास ने टोकरी सिर पर उठा ली और पाँचों लोग आगे बढ़े। रामचंद्र परमहंस के हाथ में ताँबे का एक कलश था, जिसमें सरयू का पानी भरा हुआ था।
वे रामधुन गाते हुए हनुमान गढ़ी की ओर कूच कर गए। हनमान गढ़ी से राम जन्मभूमि या बाबरी मसजिद क़रीब एक किलोमीटर दूर है। यह इलाक़ा पूरी तरह सुनसान था - उन दिनों वहाँ कोई मंदिर नहीं था। इन लोगों के हाथ में लालटेन थी, जो उस काली रात में उन्हें रोशनी दिखा रही थी।
मसजिद में बेरोकटोक प्रवेश
राम जन्मभूमि पर 9 दिनों तक चलने वाला अखंड कीर्तन हो रहा था। आज यज्ञ हवन का दिन था। वहाँ कांस्टेबल शेर सिंह ड्यूटी पर थे। वह अभिराम दास को जानते थे। उन्होंने ताला खोल दिया और 7-8 साधु अंदर दाख़िल हो गए।
मुअज्जिन की पिटाई
मसजिद के अंदर मुहम्मद इसमाइल थे। वे मुअज़्ज़िन थे। मुअज़्ज़िन का काम अज़ान देना होता है। इस मसजिद में नमाज़ नहीं पढ़ी जाती थी, लिहाज़ा अज़ान भी नहीं होती थी। पर मुहम्मद इसमाइल मसजिद की देखभाल करते थे। उन्होंने देखा कि अभिराम दास के हाथ में मूर्तियाँ हैं तो उन्हें रोकने की कोशिश की। अभिराम दस हट्ठे-कट्ठे थे, कुश्ती के मँझे हुए खिलाड़ी थे, ताक़तवर थे। उन्होंने ख़ुद को इस्माइल से छुड़ाया। इसके बाद सभी साधुओं ने इस्माइल को पकड़ कर पीटा। इस्माइल ने ख़ुद को किसी तरह छुड़ाया और मसजिद से भाग गए।
साधु-संतों ने बाबरी मसजिद के फ़र्श को सरयू के पानी से धोया, लकड़ी का सिंहासन रख उस पर चाँदी का छोटा सिंहासन रखा। उस पर कपड़ा बिछा कर रामलला को रख दिया गया और मंत्रोच्चार के बीच प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई। पूजा-अर्चना शुरू हो गई। इस तरह रामलला मसजिद में 'प्रकट' हो गए।
सोया रहा सिपाही
शेर सिंह की ड्यूटी तो 12 बजे ही ख़त्म होती थी, पर वह 1 बजे तक डटे रहे। रामलला की प्रतिमा रखे जाने और पूजा शुरू होने के बाद उन्होंने अपने साथी कॉस्टेबल बरकत अली को सोते से जगाया।'प्रकट' हुए रामलला
बरकत अली जगमग रोशनी में सिंहासन, उस पर रखी राम मूर्ति और चल रही पूजा अर्चना से आश्चर्य में पड़ गए। पर तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। वह ख़ुद सोए रहे, समय से ड्यूटी पर नहीं पहुँचे और उनकी ग़ैर-मौजूदगी में सबकुछ हो गया। लिहाज़ा, नौकरी बचाने के लिए उन्होंने वही कहा, जो उन्हें कहने को कहा गया। उन्होंने बताया कि किस तरह यकायक तेज़ रोशनी के बीच रामलला प्रकट हो गए।(यह लेख पत्रकार हेमंत शर्मा की पुस्तक 'युद्ध में अयोध्या' में छपी सामग्री पर आधारित है।)
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