श्रद्धा वालकर हत्याकांड मामले में आरोपी आफताब पूनावाला का नार्को टेस्ट होगा। दिल्ली की साकेत की अदालत ने इसके लिए दिल्ली पुलिस के अनुरोध को स्वीकार कर लिया है। पुलिस ने आरोप लगाया था कि वह जाँच में सहयोग नहीं कर रहा है। पुलिस ने कहा कि आफताब श्रद्धा के मोबाइल और हत्या में इस्तेमाल किए गए हथियार के बारे में सही जानकारी नहीं दे रहा है, वह कभी कहता है कि उसने महाराष्ट्र में मोबाइल फेंक दिया तो कभी कहता है कि दिल्ली में फेंक दिया।
तो सवाल है कि क्या पुलिस इन सभी सवालों के जवाब नार्को टेस्ट से हासिल कर लेगी? आख़िर नार्को टेस्ट में क्या आरोपी पूरी सचाई उगल देता है? यदि वह 'सच' उगल भी दे तो क्या उसको सच माना जाएगा और क्या अदालत इसे सबूत के तौर पर मानेगी?
इन सवालों के जवाब जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर नार्को टेस्ट क्या है और इसमें क्या-क्या होता है।
नार्को टेस्ट क्या है?
नार्को टेस्ट को आम तौर पर किसी अपराधी या संदिग्ध व्यक्ति से सच उगलवाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके ज़रिये उस शख्स को एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है। इसे ट्रूथ सीरम के रूप में भी जाना जाता है। नार्को टेस्ट के मामलों में सोडियम पेंटोथोल नाम का इंजेक्शन लगाया जाता है। ख़ून में ये दवा पहुँचते ही व्यक्ति अर्धचेतना की अवस्था में पहुँच जाता है। उसी अवस्था में उस शख्स से जाँच करने वाली टीम सवाल करती है और सच जानने की कोशिश करती है।
सोडियम पेंटोथल व्यक्ति की आत्म चेतना को कम करता है और उसे स्वतंत्र रूप से बोलने में सक्षम बनाता है। नार्को टेस्ट आम तौर पर एक एनेस्थेसियोलॉजिस्ट, एक मनोचिकित्सक, फोरेंसिक मनोवैज्ञानिक, एक ऑडियो-वीडियोग्राफर और सहायक नर्सिंग स्टाफ की एक टीम द्वारा किया जाता है। उस दवा की खुराक व्यक्ति की उम्र, लिंग और अन्य चिकित्सीय हालात पर निर्भर करती है। कई बार दवा की अधिक खुराक के कारण यह टेस्ट फेल भी हो जाता है। इससे व्यक्ति अधिक बेहोशी की स्थिति में भी चला जाता है, जिससे वो जवाब देने की स्थिति में नहीं रहता।
नार्को टेस्ट की सटीकता को लेकर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। आरोप लगाया जाता है कि नार्को टेस्ट सौ फ़ीसदी सटीक नहीं हो सकता है।
इसके अलावा इसकी दवा से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नुक़सान पहुँच सकता है। अस्थमा जैसी साँस की बीमारियों वाले लोगों के लिए नार्को टेस्ट ज़्यादा हानिकारक है। इसका मस्तिष्क पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इन्हीं सब बातों को लेकर नार्को टेस्ट पर लगातार सवाल भी उठते रहे हैं। यह मामला अदालत में भी जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने नागरिक अधिकारों के हनन से इस टेस्ट को जोड़कर देखा। सुप्रीम कोर्ट ने डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य का मामला, 1997 केस में फ़ैसला सुनाया था कि संबंधित शख्स की सहमति के ख़िलाफ़ नार्को या पॉलीग्राफ़ टेस्ट करना अनुच्छेद 21 के तहत क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार होगा। बता दें कि अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है।
सेल्वी और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य व अन्य, 2010 के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा था कि संदिग्ध की सहमति के बिना कोई भी लाई डिटेक्टर टेस्ट नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में यह भी कहा गया था कि यदि इनमें से कोई भी परीक्षण किया जाना है तो नार्को परीक्षण के लिए संदिग्ध की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज की जानी चाहिए।
क्या नार्को टेस्ट सबूत माना जाएगा?
अब तक सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि नार्को टेस्ट के दौरान संदिग्ध द्वारा कबूल की गई बातें अदालत में सबूत के तौर पर नहीं मानी जा सकती हैं। इसका मतलब है कि नार्को टेस्ट के ज़रिये पुलिस सिर्फ़ जांच में मदद ले सकती है, लेकिन टेस्ट के दौरान दिए गए बयान को कोर्ट में क़ानूनी मान्यता नहीं है। कई मामलों में पाया गया है कि आरोपियों ने पूरी तरह से झूठे बयान दिए। इसी वजह से नार्को टेस्ट को पूरी तरह सटीक नहीं माना जाता है।
हाथरस गैंगरेप कांड में चारों आरोपियों का भी नार्को टेस्ट किया गया था। चारों का ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ़ टेस्ट कराया गया। आरूषि हत्याकांड में भी नार्को टेस्ट किया गया था। इस मामले में काफी विवाद हुआ था। एक वीडियो वायरल हुआ था। क़रीब एक घंटे के उस वीडियो में नार्को टेस्ट के दौरान डॉ. राजेश तलवार का असिस्टेंट कृष्णा बता रहा था कि सीबीआई के अफ़सर ने उसे सजा कम करने के वादे के साथ अपराध स्वीकार करने के लिए कहा।
बता दें कि किसी भी संदिग्ध व्यक्ति या फिर आरोपित का नार्को टेस्ट पुलिस स्वत: नहीं करा सकता है, इसके लिए उसे स्थानीय कोर्ट की इजाजत लेना पड़ती है। कोर्ट से अनुमति मिलने के बाद ही नार्को टेस्ट करने का अधिकार पुलिस के पास होता है।
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