वजह क्या है?
इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने लहोड़ के दलित समुदाय से इसकी वजह जानने की कोशिश की। गाँव में इस समुदाय में कई डॉक्टर हैं, सरकारी कर्मचारी हैं, एक पुलिस कॉन्सटेबल है।
लहोड़ दलित समुदाय के एक बुजुर्ग भीखाभाई परमार ने कहा, ‘पहले हम मरा जानवर उठाते थे। ख़ुद मैंने यह काम किया है, पर इसके बदले ग़ैर-दलित हमारे साथ बेहद बुरा व्यवहार करते थे। हम ऐसा क्यों करे?’
कुछ दूसरे दलितों ने कहा, ‘ग़ैर-दलित हमसे यह काम तो करवाते हैं, पर वे इसके लिए तैयार नहीं हैं कि हम उनके साथ बैठ कर खाना खाएँ। मंदिरों में वे हम एक कोने में बैठा देते हैं, हम उनके पास नहीं जा सकते, वे हमसे मिलते जुलते नहीं हैं।’
दलितों ने साफ़ कर दिया है, चाहे जो हो जाए, वे मरा जानवर नहीं उठाएँगे।
फैल रही दलित चेतना
यह दलित चेतना लहोड़ या मेहसाणा तक सीमित नहीं है। पूरे राज्य में फैल चुकी है। गुजरात के अधिकतर इलाक़ों में दलितों ने मरा जानवर उठाने का काम बंद कर दिया है। समुदाय के लोग यह बिल्कुल मानने को तैयार नहीं है कि बुरा, गंदा और ख़राब माने जाने वाला काम वे ही करे। वे सवाल उठाते हैं कि हम ग़ैर-दलितों के लिए यह काम करें और वे ही हम अछूत माने, हमारे साथ भेदभाव करें, ऐसा क्यों? वे ख़ुद यह काम क्यों नहीं करते?ऊना में दलितों की पिटाई
इस दलित चेतना ने निर्णायक मोड़ 2016 की एक वारदात के बाद ले लिया। ऊना तालुका के मोटा समधियाना गाँव में 10 जुलाई 2016 की रात एक मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे दलितों को स्थानीय लोगों ने गोहत्या के आरोप में पकड़ लिया, उन्हें बाँधा और बुरी तरह पीटा। इस घटना ने पूरे देश में भूचाल ला दिया। यह दलित चेतना में उभार यकायक नहीं है। सदियों से शोषित और प्रताड़ित समुदाय में जागरण हो रहा है और सवर्ण समाज इसको पचा नहीं पा रहा हैं।बीते पाँच साल में इस समुदाय को पहले से अधिक निशाने पर लिया जा गया है, उन पर हमले पहले से ज़्यादा हुए हैं। इसकी वजह यह है कि एक ख़ास किस्म की शुद्धतावादी सोच देश पर हावी है, जिसमें न तो सबको साथ लेकर चलने की सोच है न ही दूसरों के लिए थोड़ी भी जगह देने की गुंजाइश।
रोहित वेमुला की आत्महत्या
ऊना की वारदात के पहले दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने पूरे देश को मथ दिया था। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएच.डी छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी, 2016 की रात फाँसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली। वह दलित समुदाय के थे। रोहित सहित विश्वविद्यालय के पांच दलित छात्रों को हॉस्टल से निकाल दिया गया था। 25 साल के रोहित गुंटुर ज़िले के रहने वाले थे और विज्ञान तकनीक और सोशल स्टडीज़ में दो साल से पीएचडी कर रहे थे।
भीमा कोरेगाँव
यह सिलसिला यहाँ नहीं रुका। इसके बाद दिसंबर 2017 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में दलितों पर हमले हुए, आगजनी और हिंसा हुई और पुलिस ने उन्हें ही गिरफ़्तार भी किया।दलितों के साथ ज़ुर्म
एक समाजिक अध्ययन में यह कहा गया है कि दलित अभी भी भारत के गाँवों में कम से कम 46 तरह के बहिष्कारों का सामना करते हैं। जिसमें पानी लेने से लेकर मंदिरों में घुसने तक के मामले शामिल हैं। हाल ही में महाराष्ट्र (खैरलांजी), आंध्र प्रदेश (रोहित वेमुला), गुजरात (उना), उत्तर प्रदेश (हामीरपुर), राजस्थान (डेल्टा मेघवाल) में हुए दलित उत्पीड़न के मामलों से यह साबित होता है कि संवैधानिक गणतंत्र बनने के 67 साल बाद भी दलितों के साथ असमानता, अन्याय और भेदभाव वाला व्यवहार होता है।67 साल पहले 1950 में जब देश ने संवैधानिक गणतंत्र को अपनाया था, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक रूप से बहिष्कृत जाति के लोगों को मौलिक और कुछ विशेष अधिकार मिले थे। संविधान की धारा 330, 332 और 244 के मुताबिक़ उन्हें राज्य, देश और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया था।
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