जाति जनगणना को लेकर कांग्रेस ने बहुत बड़ा संदेश दे दिया है। इससे भाजपा-आरएसएस की मुश्किलें बढ़ सकती है। महाराष्ट्र और झारखंड में हो रहे विधानसभा चुनाव पर इसका असर पड़ सकता है। कर्नाटक के बाद तेलंगाना जाति जनगणना करने वाला दूसरा कांग्रेस शासित राज्य बन जाएगा। यह प्रक्रिया राज्य में 6 नवंबर से 30 नवंबर तक जारी रहेगी। मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने आलाकमान के आदेशों के बाद पिछड़ी जाति आयोग के गठन का भी आदेश दिया है। हाल ही में हाईकोर्ट ने भी इस आयोग के गठन का आदेश दिया था, ताकि स्थानीय निकाय में पिछड़ों का कोटा तय हो सके।
कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी मंगलवार को जाति जनगणना पर एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए तेलंगाना आ रहे हैं। उम्मीद है कि राहुल गांधी इस मामले पर छात्र संगठनों और बुद्धिजीवियों से मुलाकात कर उनके विचार लेंगे। कांग्रेस इसे बड़े इवेंट के रूप में पेश करने जा रही है।
पिछड़ी जातियों का पिछला पैनल 1993 के कानून पर आधारित था और उसे केवल शिक्षा और रोजगार कोटा पर डेटा इकट्ठा करने का अधिकार था। सूत्रों ने बताया कि इस बार जनगणना में सभी जातियों का सामाजिक-आर्थिक प्रोफाइल इकट्ठा किया जाएगा।
सूत्रों ने कहा कि सर्वेक्षण के लिए 48,000 शिक्षकों को तैनात किया जाएगा, जिसके लिए प्राइमरी स्कूल इस महीने केवल आधे दिन काम करेंगे। वे घर-घर जाकर सर्वे कर आंकड़े जुटाएंगे। इसमें सामाजिक, शिक्षा, रोजगार, आर्थिक और राजनीतिक डेटा शामिल होगा। सरकारी अमला दरवाजों पर स्टीकर लगाएगा। इसमें 85,000 लोग गिनती करने वाले और पर्यवेक्षक होंगे।
जाति जनगणना कांग्रेस द्वारा किए गए प्रमुख चुनाव संबंधी वादों में से एक है।
उस समय, कांग्रेस अभियान का नेतृत्व कर रहे रेवंत रेड्डी ने एक खुले पत्र में कहा था कि केवल जाति जनगणना ही पिछड़े वर्गों के लिए न्याय तय करेगी।
भाजपा जाति जनगणना के खिलाफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी के अलावा सपा और आरजेडी लंबे समय से देशव्यापी जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2023 में जाति जनगणना की मांग के लिए कांग्रेस का मजाक उड़ाया। लेकिन उसके एक महीने बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने 3 नवंबर 2023 को छत्तीसगढ़ में पत्रकार सम्मेलन में कहा कि भाजप ने कभी भी जाति जनगणना का विरोध नहीं किया। उन्होंने यह भी कहा कि इस पर उचित विचार करने के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा। अमित शाह के इस बयान को आज एक साल दो दिन हो गए। भाजपा इस मुद्दे पर जहां थी, वहीं है।
लंबे समय से आरएसएस पर नजर रखने वाले, जो इसकी विचारधारा से सहमत हैं, ने बताया: “यह भाजपा में (जाति के मुद्दे पर) भ्रम का लक्षण है। 1990 के दशक की शुरुआत में, कांग्रेस रामजन्मभूमि मुद्दे पर दो पाटों के बीच फंस गई थी; आज, भाजपा को जाति के मुद्दे पर भी ऐसा ही खतरा है।”
जाहिर तौर पर, जाति जनगणना के लिए कांग्रेस के अभियान ने भाजपा को हिलाकर रख दिया है। भले ही 1991 में मंडल रिपोर्ट स्वीकार किए जाने के कुछ ही समय बाद भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा हुआ और आज उसे राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का 44 फीसदी वोट मिलता है।
1990 के दशक की शुरुआत में, रामजन्मभूमि आंदोलन से प्रेरित होकर, भाजपा ओबीसी नेता और खुद को हिंदू हृदय सम्राट कहलाने वाले कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई। लेकिन दशक खत्म होने से पहले, कल्याण सिंह के नेतृत्व में ओबीसी और ऊंची जाति यानी राजपूत-ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ के बीच सत्ता संघर्ष ने यूपी में भाजपा की इमारत को ढहते देखा। उस समय हिंदू सांप्रदायिकता के लिए जाति के गढ़ को भेदना कठिन हो गया था। ऊंची जाति को भाजपा-समर्थक अपना मुख्य समर्थक मानते हैं और उनकी नीतियां भी उसी तरह संचालित होती हैं।
भाजपा-आरएसएस ने ओबीसी नेता कल्याण सिंह को हटा दिया। उनकी जगह पहले बनिया राम प्रकाश गुप्ता और फिर राजपूत राजनाथ सिंह को पार्टी ने आगे करके कमान सौंप दी। लेकिन ओबीसी मतदाता समझ गया और उसने भाजपा को किनारे कर दिया। यह तब तक था जब तक मोदी 2014 में राष्ट्रीय परिदृश्य पर नहीं आए। भाजपा ने यूपी की अधिकांश लोकसभा सीटें जीतीं। तीन साल बाद यानी यूपी में 15 साल के अंतराल के बाद 2017 में, भाजपा के मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ (संयोग से एक राजपूत) सीएम बन गए। उस समय ओबीसी वर्ग के नेता केशव प्रसाद मौर्य का रास्ता आरएसएस ने रोक दिया था और योगी को सीएम बनवाया।
उसके बाद भाजपा ने न केवल हिंदुत्व को मजबूत करने के लिए बल्कि ओबीसी को यादव बनाम बाकी में बांटने के लिए कड़ी मेहनत की। इसका नतीजा यह निकला कि यूपी के ओबीसी, यहां तक कि यादवों में भी अधिक पढ़े लिखे, पहले खुद को हिंदू और उसके बाद अपनी जाति के सदस्य के रूप में देखना शुरू कर दिया। पौराणिक कथाओं के पन्नों से अस्पष्ट प्रतीकों को बाहर निकाला गया, और इन जातियों के सदस्यों ने भाजपा में पद मांगे और उन्हें दिए गए। भाजपा ने जाति आधारित प्रकोष्ठ बनवाए लेकिन नारा यही दिया गया कि वो पहले हिंदू हैं बाद में उनकी जाति है। बिहार की जाति जनगणना का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां केंद्र सरकार ने इसका खुल कर विरोध किया लेकिन पार्टी बिहार में यही कहती रही कि वो जाति जनगणना के खिलाफ नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में केंद्र का हलफनामा इसका विरोध कर रहा था।
तीन दशक बाद, कांग्रेस ने भाजपा के सामने जाति जनगणना का डर खड़ा कर दिया है। भाजपा में अभी सारे ओबीसी नेता हिंदू नेता के रूप में पहचाने जाते हैं जो भाजपा चाहती भी है। लेकिन जाति जनगणना होने पर हर जाति की आबादी उसके सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक प्रोफाइल भी प्रदान करेगी। इससे पता चल सकता है कि नई दिल्ली में भाजपा के 10 साल तक सत्ता में रहने के बाद भी, ऊंची जातियां अभी भी असमान रूप से सत्ता, पद और संपत्ति की मलाई खा रही हैं और ओबीसी को उनका हिस्सा नाममात्र को मिलता है। इससे कई समस्याएं सामने आएंगी और जाति आधारित सत्ता संघर्ष बड़ा स्वरूप ले लेगा। इसलिए भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे पर अड़ी हुई है और जाति जनगणना को हिंदुत्व के लिए खतरा मानती है।
बहरहाल, भाजपा धीरे-धीरे बदल रही है: पहले यह एक बनिया पार्टी के रूप में जानी जाती थी, अब इस पर प्रमुख रूप से ब्राह्मण और राजपूतों का कब्जा है। जो चंद ओबीसी या दलित चेहरे दिखते हैं, वे महज मुखौटे हैं। याद कीजिए बिहार, जहां जाति की राजनीति अपने चरम पर थी और भूमिहारों (उच्च शक्तिशाली जमींदार जाति) को यादवों से मुकाबला करने के लिए सेनाएं खड़ी करना पड़ी थी? भाजपा को समझ नहीं आ रहा है कि एक बार तमाम पिछड़ी और दलित जातियों को अपनी पहचान स्थापित करने की धुन सवार हुई तो भाजपा के हिंदुत्व का महल बिखर सकता है।
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