जब से चुनावी बॉन्ड योजना शुरू हुई है तब से बीजेपी के अलावा अन्य राजनीतिक दल इस योजना पर सवाल उठाते रहे हैं। उनकी आपत्ति भी जायज लगती है। बीजेपी को जितना चंदा मिलता है उतना तो बाक़ी सभी दलों को मिलाकर भी नहीं मिलता है। यानी चुनावी चंदे में भारी अंतर है। सवाल है कि इसकी वजह क्या है? क्या सिर्फ़ इतना ही कि बीजेपी सत्ता में है?
इसका जवाब जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर इस योजना में किन दलों को कितना पैसा मिला और कितना अंतर है। चुनावी बॉन्ड योजना शुरू होने के बाद से पांच वर्षों में बॉन्ड के माध्यम से दी गई धनराशि का आधे से अधिक यानी क़रीब 57% हिस्सा बीजेपी को गया है। चुनाव आयोग को दी गई घोषणा के अनुसार, पार्टी को 2017-2022 के बीच बॉन्ड के माध्यम से 5,271.97 करोड़ रुपये मिले। बीजेपी के बाद जिसको सबसे ज़्यादा चंदा मिला, वह कांग्रेस है। लेकिन बीजेपी के मुक़ाबले इसे सिर्फ़ 952.29 करोड़ रुपये ही मिले। बीजेपी को कांग्रेस से क़रीब साढ़े पाँच सौ फीसदी ज़्यादा चंदा मिला।
इनके अलावा क्षेत्रीय दलों में तृणमूल कांग्रेस को पिछले कुछ वर्षों में 767.88 करोड़ रुपये मिले। चुनावी बॉन्ड से चंदा पाने में भाजपा और कांग्रेस के बाद यह तीसरे स्थान पर रही। बीजू जनता दल को 2018-2019 और 2021-2022 के बीच चुनावी बॉन्ड में 622 करोड़ रुपये मिले, डीएमके को 2019-2020 से 2021-2022 तक 431.50 करोड़ रुपये, एनसीपी को 51.15 करोड़, जेडीयू को 24.4 करोड़ रुपये मिले हैं। आप ने पिछले कुछ वर्षों में 48.83 करोड़ रुपये का चंदा मिलने की घोषणा की है, लेकिन यह साफ़ नहीं है कि इसमें से कितना सिर्फ़ चुनावी बॉन्ड से मिला है।
सीपीआई, सीपीआई (एम), बीएसपी और नेशनल पीपुल्स पार्टी (मेघालय में सत्तारूढ़ पार्टी) ने चुनाव आयोग को बताया है कि उन्हें चुनावी बॉन्ड के माध्यम से कोई चंदा नहीं मिला है।
चंदे में इस तरह की असमानताएँ क्यों है, इसके जवाब में कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि ऐसा डर की वजह से है। हाल ही में कांग्रेस के कद्दावर नेता अशोक गहलोत ने चंदे को लेकर ईडी पर बड़ा आरोप लगाया था।
गहलोत ने कहा था कि दूसरे दलों को जो भी लोग चंदा दे रहे हैं, उनके घर पर ईडी पहुंच जा रही है। गहलोत का कहना था कि चंदा देने वाले डर के कारण अन्य दलों को चंदा नहीं दे रहे हैं और सरकार होने का फायदा सीधे तौर पर बीजेपी को हो रहा है।
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि चुनावी बॉन्ड से जो चंदा मिल रहा है, उसमें सरकार की मिलीभगत है। उन्होंने दलील दी थी कि एसबीआई और ईडी के पास चंदा देने वालों की सारी जानकारियां हैं और दोनों ही एजेंसियाँ सरकार के अधीन हैं।
चुनावी बॉन्ड का विरोध करने वाले तर्क दे रहे हैं कि चुनावी बॉन्ड में पारदर्शिता नहीं होने से कॉरपोरेट सेक्टर को नीति बनाने में आम नागरिकों से ज्यादा तरजीह मिलेगी। जब क़रीब पाँच साल पहले चुनावी बॉन्ड को पेश किया जा रहा था तब भी रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग ने सवाल उठाए थे।
तब आरबीआई ने कहा था कि इससे कालाधन पर रोक नहीं लगेगी और इसने डीमैट प्रारूप में जारी करने की सिफारिश की थी। बैंक का कहना था कि भौतिक रूप में इसे रखने से शेल कंपनियां गलत इस्तेमाल कर सकती हैं। चुनाव आयोग ने कहा था कि चुनावी बांड व्यक्तिगत उम्मीदवारों और नए राजनीतिक दलों के लिए उपलब्ध नहीं होंगे तो इन लोगों को बड़े स्तर पर चंदा कैसे मिलेगा? बॉन्ड नियम के मुताबिक 1 प्रतिशत वोट लाने वाली पार्टियों को ही पैसा मिल सकेगा।
अब जब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ चुनावी चंदे पर सुनवाई कर रही है तो पारदर्शिता से जुड़ा मुद्दा उठ रहा है। याचिकाकर्ताओं की मांग है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को आरटीआई के दायरे में लाया जाए। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा?
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