न्यायपालिका और विधायिका एक बार फिर आमने-सामने हैं। हालांकि संविधान में दोनों के कार्यक्षेत्र और अधिकार बिल्कुल साफ हैं, पर कई बार स्थिति उलझी है और दोनों पर एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में घुसने का आरोप लगा है।
एक अहम घटनाक्रम में महाराष्ट्र के दोनों सदनों ने अलग-अलग प्रस्ताव पारित कर कहा है कि वे पत्रकार अर्णब गोस्वामी विशेषाधिकार उल्लंघन के मामले में उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय की किसी नोटिस का संज्ञान नहीं लेंगे।
महाराष्ट्र में दो सदन हैं, विधानसभा और विधान परिषद। इस मामले में इन दोनों सदनों ने अलग-अलग प्रस्ताव पास किया है और वह भी आम सहमति से।
ये प्रस्ताव सदन के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन पारित किए गए। इन प्रस्तावों में साफ तौर पर कहा गया है कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के संज्ञान लेने या उसका जवाब देने का मतलब यह होगा कि अदालत को विधानसभा के कामकाज को नियंत्रित करने या उस पर सवाल उठाने का हक़ है। इन प्रस्तावों में यह भी कहा गया है कि यह 'संविधान के बुनियादी ढाँचे से मेल नहीं खाता है।'
महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष नाना पटोले ने कहा कि सदन ने प्रस्ताव को आम सहमति से पारित कर दिया है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अध्यक्ष या उपाध्यक्ष नरहरि ज़रवाल उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के किसी नोटिस या तलब का जवाब नहीं देंगे।
अर्णव गोस्वामी, प्रधान संपादक, रिपब्लिक टीवी
ऐसा ही विधान परिषद में हुआ। परिषद के अध्यक्ष रामराजे नाइक निंबालकर ने प्रस्ताव के बग़ैर किसी विरोध के पारित होने का एलान किया। इस प्रस्ताव में भी कहा गया है कि यदि अर्णब गोस्वामी ने विशेषाधिकार उल्लंघन नोटिस को चुनौती दी और हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने उस पर किसी तरह का नोटिस जारी किया तो उसका जवाब नहीं दिया जाएगा।
विधानसभा अध्यक्ष पटोले ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से कहा,
“
"संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की सीमाओं का साफ उल्लेख है, हर अंग अपनी सीमा में रह कर काम करेगा और कोई अंग दूसरे की सीमा का अतिक्रमण नहीं करेगा।"
नाना पटोले, अध्यक्ष, महाराष्ट्र विधानसभा
बीजेपी का स्टैंड?
हालांकि किसी ने इन प्रस्तावों का विरोध नहीं किया, पर विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के विधायक राहुल नरवेकर ने कहा कि सदन से इस तरह के प्रस्ताव के पारित किए जाने से 'गलत परिपाटी की शुरुआत हो सकती है।'
याद दिला दें कि शिवसेना विधायक प्रताप सरनायक ने 8 सितंबर को विधानसभा में अर्णब गोस्वामी के ख़िलाफ़ विशेषाधिकार उल्लंघन का प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि वे सदन के नेता और 'मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ बेबुनियाद बातें करते हैं और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं।'
मामला क्या है?
प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि गोस्वामी के टीवी बहसों में मुख्यमंत्री के अलावा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार के ख़िलाफ़ भी बेबुनियाद बातें कही जाती हैं और विधायकों व मंत्रियों को लगातार जानबूझ कर अपमानित किया जाता है।
रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक गोस्वामी ने विशेषाधिकार उल्लंघन के नोटिस को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। विधानसभा के सहायक सचिव ने सुप्रीम कोर्ट जाने के गोस्वामी के फ़ैसले की आलोचना की और कहा कि उन्होंने सदन की विशेषाधिकार समिति के सामने पेश हुए और अपनी बात कहे बिना ही गोपनीय बातों का खुलासा किया और अदालत चले गए। सुप्रीम कोर्ट ने 6 नवंबर को उस सहायक सचिव के ख़िलाफ़ अवमानना का नोटिस जारी कर दिया।
विधायिका बनाम न्यायपालिका
अब यह मामला कम से कम महाराष्ट्र में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की शक्ल ले चुका है और समझा जाता है कि विधायिका हर हाल में अपने को सुरक्षित और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से दूर रखना चाहता है। यह भी साफ है कि विधायिका आरपार की लड़ाई चाहता है।
स्पीकर पटोले ने मंगलवार को सदन में कहा कि संविधान की धारा 194 के तहत सदन को विशेषाधिकार उल्लंघन का प्रस्ताव रखने का अधिकार है। उन्होंने धारा 212 का हवाला देते हुए कहा कि उसमें यह साफ कहा गया है कि न्यायपालिका किसी सूरत में विधायिका की प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठा सकता है।
बता दें कि न्यायपालिका और विधायिका के बीच अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों को लेकर आमने-सामने होने का यह पहला मौका नहीं है। अतीत में ऐसा कई बार हो चुका है।
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नागालैंड-मणिपुर के मामले
ऐसा ही मामला नागालैंड और मणिपुर में हुआ था। इस साल जुलाई में वहाँ संवैधानिक संकट पैदा हो गया जब इन दोनों ही राज्यों के विधानसभा अध्यक्षों ने सात-सात सदस्यों को अयोग्य घोषित कर दिया। उन लोगों ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
गुवाहाटी हाई कोर्ट की कोहिमा बेंच ने नागालैंड स्पीकर शारिंगेन लौंगकुमार और मणिपुर हाई कोर्ट ने स्पीकर से कहा कि वे इन सदस्यों को अयोग्य घोषित करने के फ़ैसले पर फिलहाल रोक लगाएं। दोनों ही स्पीकरों ने कहा था कि यह सदन के कामकाज में हस्तक्षेप है और अदालत को इसका अधिकार नहीं है। बाद में यह मामला सुलटा था।
क्या हुआ था राजस्थान में?
कुछ दिन पहले राजस्थान विधानसभा और हाई कोर्ट भी आमने-सामने आ गए थे, हालांकि उस मामले ने ज़्यादा तूल नहीं पकड़ा था। कांग्रेस विधायक सचिन पायलट और दूसरे 18 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के स्पीकर सी. पी. जोशी के फ़ैसले को चुनौती देने पर हाई कोर्ट ने स्पीकर से कहा था कि वे इस पर 24 जुलाई पर रोक लगाए।
जोशी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए कहा था कि सदन के कामकाज में हस्तक्षेप करने का हक़ अदालत को नहीं है।
सोमनाथ चटर्जी ने खड़ा कर दिया था तूफान
न्यायपालिका बनाम विधायिका पर बहुत बड़ा सवाल 2008 में उठा था जब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस मुद्दे पर तूफान खड़ा कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के प्रो-टेम स्पीकर से कहा था कि मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को सदन में बहुमत साबित करने की तारीख़ बढ़ा दी जाए।
इस पर सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि इस मुद्दे को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजा जाना चाहिए। इस पर इतना विरोध हुआ था कि बीजेपी नेता वी. के. मलहोत्रा ने स्पीकर के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव तक लाने की धमकी दे थी।
लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का कहना था कि अदालत को यह हक़ है ही नहीं कि वह विधायिका के कामकाज या उसकी प्रक्रिया को लेकर कोई आदेश दे या किसी तरह का हस्तक्षेप करे।
चटर्जी ने इस मुद्दे को आगे भी बढ़ाया था। उन्होंने कोलकाता में आयोजित एक सेमिनार में बहुत ही तल्ख़ अदांज में कहा था कि संविधान में विधायिका और न्यायपालिका के कामकाज का स्पष्ट बंटवारा है।
उनका ज़ोर इस पर था कि अदालत को किसी सूरत में किसी सदन के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उन्होंने इसे 'ज्युडिशियल एक्टिविज़्म' क़रार दिया था और कहा था कि न्यायपालिका के इस तरह के कामकाज से लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा।
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