हिमाचल प्रदेश में इस बार लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की शर्मनाक हार की ज़िम्मेदारी तय करने को लेकर मचे घमासान के बीच अब पार्टी नेतृत्व ने सोशल मीडिया पर कोई भी कमेंट करने पर बैन लगा दिया है। जिससे कार्यकर्ता अब अपने नेताओं के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल सकेंगे। पार्टी के इस फरमान का विरोध भी हो रहा है। आरोप लगाया जा रहा है कि अपने आपको बचाने के लिये बड़े नेता आम कार्यकर्ता की जुबान पर ताला लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रदेश में कांग्रेस की लोकप्रियता घटती जा रही है। हालाँकि बीते साल हार के बावजूद पार्टी 21 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी। लेकिन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की चारों सीटों पर शर्मनाक हार हुई है और उसे महज 27.3 प्रतिशत मत ही मिले हैं। यह हार पार्टी के लिये किसी सदमे से कम नहीं है। जबकि बीजेपी ने 69.1 प्रतिशत मत हासिल कर हर किसी को चौंकाया है, जो कि एक रिकार्ड है।
मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस को पूरे देश में शायद सबसे कम वोट हिमाचल में मिले हैं। प्रदेश में ‘हर-हर मोदी-घर-घर मोदी’ का नारा इस कदर बुलंद हुआ कि प्रदेश के तमाम बड़े कांग्रेस नेता अपने पोलिंग बूथ पर भी पार्टी को कोई बढ़त नहीं दिलवा पाये।
अब लोकसभा चुनाव में क़रारी हार मिली है तो पार्टी में इसके लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है और ईवीएम का रोना रोया जा रहा है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस का वोट बैंक इस बार बीजेपी की ओर शिफ़्ट हो चुका है। लिहाजा, समय रहते अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में पार्टी की समस्याएँ कम नहीं होंगी। राज्य की सत्ता में वापसी का उसका सपना शायद पूरा नहीं होगा।रोचक तथ्य यह है कि क़रीब 18 माह पहले प्रदेश में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 42.32 प्रतिशत मत हासिल कर 68 में से 21 सीटें जीती थीं। तब बीजेपी को 49.53 प्रतिशत मत मिले थे और उसने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यही नहीं, 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बीच भी कांग्रेस ने 41.07 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। हालाँकि तब राज्य की सत्ता में होते हुए भी कांग्रेस किसी भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई थी।
इस बार मोदी लहर कांग्रेस पर कहर बनकर टूटी। और बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में प्रदेश के सभी 68 विधानसभा क्षेत्रों में ज़बरदस्त बढ़त हासिल कर रिकॉर्ड बनाया है।
छह बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह का भी जनाधार खिसका है। उनके अपने विधानसभा क्षेत्र अर्की से बीजेपी को भारी बढ़त मिली है। इसके साथ ही उनके गढ़ माने वाले रोहड़ू और रामपुर विधानसभा क्षेत्र में पहली बार बीजेपी ने बढ़त हासिल की है। इसी तरह से कांग्रेस के सभी प्रत्याशियों का उनके अपने विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं ने भी साथ नहीं दिया। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्रिहोत्री के हलके हरोली से भी बीजेपी का पलड़ा भारी रहा है। प्रदेश की चारों सीटों पर जीत का अंतर कहीं 4 लाख से अधिक तो कहीं 3 लाख से अधिक है। जिससे लगता है कि मोदी लहर के साथ-साथ इन चुनावों में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की स्वच्छ छवि का लाभ भी बीजेपी को मिला है।
बीजेपी ने चुनावों से क़रीब तीन महीने पहले ही अपने संगठन को चुस्त-दुरूस्त करते हुए बैठकों का दौर शुरू कर दिया था। बीजेपी के पन्ना प्रमुख, विस्तारकों और संगठन मंत्रियों ने मोदी ब्रांड को घर-घर पहुँचाया और दूसरे नेताओं ने रैलियों के जरिये पार्टी का प्रचार किया। वहीं, पार्टी ने सोशल मीडिया का भी भरपूर इस्तेमाल किया।
राठौर को कमान सौंपने से हुआ नुक़सान!
इसके विपरीत कांग्रेस पार्टी ने चुनाव के एन वक़्त पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से सुखविन्दर सिंह सुक्खू को हटाकर पार्टी की कमान कुलदीप सिंह राठौर को सौंप दी। पार्टी का यह फ़ैसला संगठन के लिये आत्मघाती साबित हुआ। चुनावों में सुक्खू समर्थक कांग्रेसी साइलेंट मोड में चले गये। उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये राठौर ने कोशिश भी नहीं की। उल्टे राठौर वीरभद्र सिंह के सामने झुक गये। राठौर का प्रदेश में कोई ठोस जनाधार नहीं है। यही नहीं, कांग्रेस का वाररूम क्या कर रहा था, इसका पता ही नहीं चला। कागजों में ही सब घोड़े दौड़ते रहे।
चुनावों के दौरान कांग्रेस के कई बड़े नेता ही टिकट से दूर भाग गये। बाद में पं. सुखराम और उनके पौत्र आश्रय शर्मा को कांग्रेस में शामिल कर मंडी का टिकट आश्रय को थमा दिया गया। इसी तरह बीजेपी के पूर्व सांसद सुरेश चंदेल को कांग्रेस में शामिल करवाया गया।
कांग्रेस का ही विरोध करते रहे वीरभद्रअनमने भाव से वीरभद्र सिंह चुनाव प्रचार में तो आये, लेकिन आते ही कांग्रेस की रैलियों में कांग्रेस प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ ही आग उगलने लगे। शिमला के प्रत्याशी को उन्होंने पुराना पापी कह डाला, तो मंडी में सुखराम के ख़िलाफ़ जमकर भड़ास निकाली। कांगड़ा के प्रत्याशी को अपना बताया तो हमीरपुर के प्रत्याशी का खुलकर समर्थन ही नहीं किया। केंद्रीय नेतृत्व ने प्रचार के लिये प्रदेश को बाक़ायदा हेलिकॉप्टर तक दिया था। लेकिन कुलदीप राठौर ने प्रचार के लिये पूर्व अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खू की मदद ही नहीं ली।
हिमाचल में कांग्रेस के पतन की शुरुआत तो वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल से ही हो चुकी थी। दरअसल, वीरभद्र सिंह ने कभी भी सुखविन्दर सिंह सुक्खू को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार ही नहीं किया। हालाँकि सुक्खू छह साल तक पार्टी के प्रमुख रहे। पार्टी जब सरकार में थी तो संगठन के लोगों को सरकार में कोई ठोस हिस्सेदारी नहीं मिली। इस दौरान ज़मीनी वर्कर की अहमियत को न तो वीरभद्र सिंह ने स्वीकारा और न ही सुक्खू ने कोई तवज्जो दी। जिससे कांग्रेस का आम कार्यकर्ता मायूस हुआ और वह घर बैठ गया। लोकसभा चुनावों में उसने पार्टी की कोई मदद नहीं की जिसका नतीजा क़रारी हार के रूप में मिला।
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