दिल्ली की अदालत ने दिल्ली दंगा जाँच मामले में गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली दिल्ली पुलिस की फिर से तीखी आलोचना की है। इसने कहा कि ठीक से जाँच करने में जाँच एजेंसी विफल रही है। इसने पुलिस जाँच को संवेदनहीन और निष्क्रिय बताया। अदालत ने कहा कि पुलिस की ऐसी जाँच देशवासियों के पैसे की बर्बादी है। अदालत ने तो यहां तक कह दिया कि पुलिस ने तो सिर्फ़ अदालत की आँखों पर पर्दा डालने की कोशिश की है। दिल्ली दंगों की जाँच के जो भी मामले अब तक अदालत में गए उनमें अदालतों ने पुलिस पर ऐसी ही सख़्त टिप्पणी की है। कई बार तो अदालत ने जाँच को एकतरफ़ा बताया और टिप्पणी की कि बिना किसी सबूत के ही आरोपी बना दिए गए।
दिल्ली की अदालत की ताज़ा टिप्पणी आप के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई से जुड़े मामले को लेकर है। वह मामला दिल्ली के चांद बाग इलाक़े में फरवरी 2020 में दंगों के दौरान एक दुकान की कथित लूट और तोड़फोड़ से संबंधित था। इस मामले में अदालत ने गुरुवार को पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम और दो अन्य को आरोपमुक्त कर दिया।
अदालत ने पुलिस जाँच की आलोचना करते हुए कहा, 'जब इतिहास विभाजन के बाद के दिल्ली में सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगों को देखेगा तो नवीनतम वैज्ञानिक तरीक़ों के उपयोग के बाद भी सही जाँच करने में जांच एजेंसी की विफलता निश्चित रूप से लोकतंत्र के प्रहरियों को पीड़ा देगी।' 'लाइव लॉ' की रिपोर्ट के अनुसार, जाँच एजेंसी को फटकार लगाते हुए अदालत ने कहा कि इस मामले में चश्मदीद गवाहों, वास्तविक अभियुक्तों और तकनीकी सबूतों का पता लगाने के लिए कोई वास्तविक प्रयास किए बिना ही सिर्फ़ आरोप पत्र को दाखिल कर मामला सुलझा दिया गया लगता है।
अदालत ने कहा, 'यह न्यायालय ऐसे मामलों को न्यायिक प्रणाली के गलियारों में बिना सोचे-समझे इधर-उधर भटकने की अनुमति नहीं दे सकता है, इस न्यायालय के क़ीमती न्यायिक समय को बर्बाद करते नहीं छोड़ सकता है जब यह केस आईने की तरह साफ़ है।'
अदालत ने यह भी कहा कि जो मामले सुलझे नहीं हैं उनमें शिकायतकर्ता, पीड़ित की पीड़ा बनी हुई है, निष्क्रिय जाँच हो रही है, जांच के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा निगरानी की कमी है और यह करदाता के समय और धन की आपराधिक बर्बादी है।
अदालत ने कहा कि दिल्ली के उत्तर-पूर्वी ज़िले में क़रीब 750 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से अधिकतम मामले इस न्यायालय के विचाराधीन हैं। अभी तक लगभग 35 मामलों में ही आरोप तय किए गए हैं।
पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने इस मामले को करदाताओं की गाढ़ी कमाई की भारी बर्बादी करार दिया, जिसमें पुलिस ने केवल अदालत की आँखों पर पर्दा डालने की कोशिश की और कुछ नहीं।
तीनों आरोपियों को आरोपमुक्त करते हुए अदालत ने कहा कि घटना का कोई सीसीटीवी फुटेज नहीं था, जिससे आरोपी की घटनास्थल पर मौजूदगी की पुष्टि हो सके, कोई स्वतंत्र चश्मदीद गवाह नहीं था और आपराधिक साजिश के बारे में कोई सबूत नहीं था। इसके अलावा अदालत ने यह भी कहा कि जाँच में संवेदनशीलता और कुशलता का अभाव है।
अदालत ने कहा कि इतने लंबे समय तक इस मामले की जाँच करने के बाद पुलिस ने केवल पांच गवाह पेश किए- पीड़ित, ड्यूटी अधिकारी, औपचारिक गवाह, जांच अधिकारी (आईओ) और एक कांस्टेबल जिन्होंने तीन आरोपियों की पहचान की थी। न्यायाधीश ने कहा कि कांस्टेबल की ओर से घटना की सूचना देने में देरी से यह आभास होता है कि उसे मामले में प्लांट किया गया है।
अदालत की दिल्ली पुलिस के कामकाज पर निश्चित रूप से ये गंभीर टिप्पणी है और ऐसा नहीं है कि ऐसा कोई पहली बार हुआ है। हाई कोर्ट या कुछ और स्थानीय अदालतों ने, बीते एक से डेढ़ साल में लगातार दिल्ली पुलिस के कामकाज पर टिप्पणी की है। कोर्ट ने इसी साल जुलाई महीने में कहा था कि वह दिल्ली पुलिस के 'उदासीन रवैए' से दुखी है। जस्टिस विनोद यादव ने कहा था, 'एफ़आईआर दर्ज किए जाने के मामले में संबंधित अधिकारी को जानकारी नहीं दी गई। जाँच एजेन्सी ने अदालत के सामने इसका जिक्र तक नहीं किया। यह जाँच एजेन्सी के लापरवाही भरे रवैए को ही दर्शाता है।'
जुलाई महीने में ही एक सुनवाई के दौरान दिल्ली के सत्र न्यायालय ने दिल्ली पुलिस पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि उसने दिल्ली दंगे के दौरान गोली चलाने के अभियुक्तों के बचाव में साक्ष्य गढ़ा था।
इस साल जून में देवांगना कालिता, नताशा नरवाल और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को जमानत देते वक़्त भी दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को जमकर फटकार लगाई थी। अदालत ने पुलिस की चार्जशीट को सिरे से खारिज कर दिया था।
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