ऐसा लगता है कि बिहार की राजनीति एक बार फिर करवट लेने की तैयारी में है, हालाँकि निश्चित तौर पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल की नेता राबड़ी देवी ने यह कह कर सबको चौंका दिया है कि विपक्ष के गठबंधन में नीतीश कुमार के शामिल होने के ख़िलाफ़ वह नहीं हैं।
राबड़ी देवी ने एक पत्रकार से उनके पूछे गए सवाल के जवाब में कहा, ‘यदि नीतीश कुमार महागठबंधन में शामिल होते हैं तो हम उनका विरोध नहीं करेंगे।’
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बीजेपी को झटका
इस सामान्य से दिखने वाले बयान के गंभीर राजनीतिक निहितार्थ हैं। नीतीश कुमार बीजेपी से बुरी तरह नाराज़ हैं। वह चाहते थे कि नरेंद्र मोदी सरकार में उनके जनता दल यूनाइटेड से कम से कम दो सांसद मंत्री बनाए जाएँ। पर बीजेपी ने सिर्फ़ एक पद की पेशकश की। नाराज़ जनता दल यूनाइटेड ने मंत्रिपरिषद से बाहर रहना ही बेहतर समझा। इसके बाद नीतीश कुमार ने अपनी विशिष्ट शैली में बीजेपी पर पलटवार किया। उन्होंने बिहार मंत्रिपरिषद का विस्तार किया और 8 नए मंत्रियों को शामिल किया। पर इसमें बीजेपी से किसी को शामिल नहीं किया गया। राज्य सरकार में बीजेपी शामिल है और सुशील मोदी उप मुख्यमंत्री हैं। नए विस्तार में बीजेपी को जगह नहीं दिए जाने को सुशील मोदी ने हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा कि अगले विस्तार में उनके लोग सरकार में शामिल होंगे। पर यह तो साफ़ है कि जानबूझ कर इस बार उनके दल की उपेक्षा की गई है।इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे विपक्ष का सफ़ाया हो गया। राष्ट्रीय जनता दल का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत पाया, लालू-राबड़ी के लाल तेजस्वी यादव भी नहीं। ख़ुद लालू यादव चारा घोटाला में सज़ा काट रहे हैं और फ़िलहाल राँची के राजेंद्र मेडिकल कॉलेज में स्वास्थ्य के आधार पर भर्ती हैं। ज़ाहिर है, राजद के सितारे गर्दिश में हैं, ऐसे में यदि जनता दल यूनाइटेड उसके साथ हाथ मिलाता है तो यह उसके लिए डूबते को तिनके के सहारे की तरह होगा। विपक्ष एक बार फिर मजबूत होगा। शायद इसीलिए राबड़ी ने पहल की है और एक तरह से वापस लौटने के लिए एक गलियारा खोला है ताकि नीतीश ससम्मान वापस आ सकें।
हिन्दू एकीकरण
पर इसकी संभावना कम है। इसकी वजह है। संसदीय चुनाव में बीजेपी को राज्य में 17 और जनता दल यूनाइटेड को 16 सीटें मिली हैं, उसका वोट शेयर बढ़ा। लेकिन वह हिन्दू एकीकरण करने में भी कामयाब रही। यह कहा जा सकता है कि लोगों ने जाति की भावना से हट कर वोट दिया। यही वजह है कि बीजेपी के साथ रहे सभी दलों को अच्छी कामयाबी मिली है। जनता दल यूनाइटेड ही नहीं, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी कामयाब रही, इसके सभी छह उम्मीदवार जीत गए। यह कहा जा सकता है कि लोगों ने मोदी से प्रभावित होकर वोट दिया है और इसका श्रेय उन्हें ही जाता है।
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यदि नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया तो उन्हें इसका कितना लाभ मिलेगा, यह सवाल उठना लाज़िमी है। अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव है। पर्यवेक्षकों का मानना है कि बीजेपी की जीत तुक्का नहीं है, न ही ईवीएम की वजह से हुई है। यह हिन्दू एकीकरण का नतीजा है और इस ट्रेंड को तुरन्त बदलना मुमकिन नहीं होगा। यानी, आने वाले कुछ समय तक वोटरों पर बीजेपी की पकड़ बरक़रार रहेगी, इसकी पूरी संभावना है। नीतीश कुमार को इस पर विचार करना होगा। उन्हें यह भाँपना होगा कि यदि उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ा तो जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया है, उनमें से कितने उनके साथ रहेंगे।
एक बात तो साफ़ है कि नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के अपने वोट बैंक से ज़्यादा वोट मिले हैं। सवर्णों के वोट भी उन्हें मिले हैं। यानी, बीजेपी के वोट उन्हें ट्रांसफर हुए हैं। सवाल यह है कि यदि वह अकेले चुनाव लड़ते हैं तो यह अतिरिक्त वोट उन्हें मिलेगा या नहीं। शायद नहीं। पर्यवेक्षक यह भी अनुमान लगाते हैं कि ख़ुद जदयू के पारंपरिक वोटर इस बार बीजेपी से प्रभावित हुए हैं। यह मुमकिन है कि बीजेपी का साथ छोड़ने से वे नीतीश की पार्टी का साथ छोड़ दें। इसलिए नीतीश कुमार इस पर जोखिम नहीं उठाएँगे और कई बार सोचेंगे। इसलिए फ़िलहाल नीतीश बीच-बीच में अपने तेवर कड़े करते रहेंगे और बीजेपी को संकेत देते रहेंगे कि उनके समर्थन को हल्के में न लिया जाए। लेकिन इसकी संभावना कम है कि वह एनडीए से बाहर निकल आएँ।
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