बिहार चर्चा के केंद्र में फिर है। नीति आयोग की ताज़ा रिपोर्ट ने विकास के पैमाने पर बिहार को निचले पायदान पर माना है। नीति आयोग ने ये आँकड़े कब और कैसे जुटाए इस पर सवाल उठ सकता है लेकिन उसने आँकड़े जारी किए तो बिहार बहस के केंद्र में आ गया। आना भी चाहिए। विकास की बातें हों और विकास न दिखे तो सवाल उठने लाजमी हैं।
विपक्ष ने बिहार सरकार और ख़ास कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कामकाज पर सवाल उठाया। ट्विटर-ट्विटर होने लगा। मीडिया ने भी सवाल उठाया। बिहार की बदहाली की अक्कासी की गई। ख़ास कर सोशल और समानांतर मीडिया ने नीतीश कुमार की नाकामियों का बखान करने में किसी तरह की कोताही नहीं की। मुख्यधारा के मीडिया में यह ख़बर उस प्रमुखता से नहीं छपी या दिखाई गई, जिस तरह सोशल मीडिया में दिखाई या बताई गई।
हालाँकि उसी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख भी है कि सामाजिक विषमताओं यानी जातीय भेदभाव की वजह से बिहार में आत्महत्या करने वालों की तादाद न के बराबर है। दूसरे प्रदेशों में इस तरह के मामले हैं। जातीय भेदभाव की वजह से लोग आत्महत्या करते हैं। लेकिन बिहार इस पैमाने पर ऊपरी पायदान पर है। यानी एक तरफ़ विकास का पैमाना जिसमें बिहार पिछड़ रहा है तो दूसरी तरफ़ सामाजिक न्याय और समरसता जिसमें बिहार अव्वल है। लेकिन इस तसवीर को न दिखाया गया और न ही उछाला गया।
ठीक उसी वक़्त बिहार में बदलाव की एक नई इबारत लिखी जा रही थी, जिस वक़्त नीति आयोग की रिपोर्ट सामने आई थी। बदलाव की यह बयार बेटियों के लिए सौगात की तरह है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस फ़ैसले से बिहार की बेटियाँ बेतरह खुश हैं।
यूँ बिहार में कुछ भी घटता है तो उसकी गूंज देश भर में सुनाई देती है, सियासी तौर पर भी और सामाजिक तौर पर भी बिहार चर्चा में रहता है। लेकिन बिहार में इंजीनियरिंग और मेडिकल में लड़कियों के 33 फ़ीसदी आरक्षण दिए जाने पर अगर चर्चा न हो, मीडिया इस पर तवज्जो न दे तो इस पर सवाल उठना लाजिमी है।
बिहार के अख़बारों ने ज़रूर इस ख़बर को प्रमुखता से छापा। बिहार के पिछड़ेपन पर नीति आयोग की रिपोर्ट पर तो चर्चा हो रही है लेकिन नीतीश कुमार के इस फ़ैसले पर नहीं।
वैसे यह पहला मौक़ा नहीं है जब महिलाओं को ताक़त देने के लिए नीतीश कुमार ने इस तरह का क़दम उठाया है। नीतीश कुमार की आलोचना जितनी करनी है करें, लेकिन उन्होंने बिहार में पंचायत स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी सुनिश्चित की। देश में सियासी तौर पर महिलाओं की हिस्सेदारी की बात तो की जाती रही है। उन्हें 33 फ़ीसदी आरक्षण देने की मांग लंबे समय से होती रही है लेकिन किसी पार्टी ने भी इस पर अमल नहीं किया, इसे लेकर भाषण ज़रूर दिए गए। लेकिन बिहार में पंचायत स्तर पर 33 फ़ीसदी आरक्षण लागू किया गया और ऐसा करने वाला बिहार पहला राज्य बना था। फिर पुलिस की नौकरियों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी तय की गई उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था हुई तो पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी।
ज़मीनी स्तर पर लड़कियों को स्कूल से जोड़ने के लिए लिबास और साइकिल योजना ने भी बिहार में बदलाव लाया। ख़ास कर ग़रीबों-वंचितों की बच्चियों को इसका फ़ायदा मिला। घर से स्कूल दूर होने की वजह से लड़कियाँ पहले स्कूल जाने से हिचकिचातीं थीं। फिर ढंग के कपड़े नहीं होने से उनकी परेशानी और बढ़ती थी लेकिन इन योजनाओं ने इन बंदिशों को तोड़ा।
यह सही है कि स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सुधार की ज़रूरत है लेकिन लड़कियों को स्कूल तक ले जाने में नीतीश कुमार की इन योजनाओं का बड़ा हाथ रहा है। मैट्रिक की परीक्षाओं में आधी आबादी की तादाद अगर आधी-आधी हो तो इसे बदलाव के तौर पर ही देखना होगा।
पिछले साल क़रीब नब्बे हज़ार लड़कियों को इसका लाभ मिला था। अब इंजीनियरिंग और मेडिकल में बिहार की बेटियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू कर नीतीश कुमार ने बड़ी पहल की है। इसका फायदा होगा और डॉक्टर और इंजीनियर बनने का सपना देखने वाली लड़कियाँ जो दौड़ में पीछे छूट जाती थीं, उनके सपने अब उनकी आँखों में ही दम नहीं तोड़ेंगे बल्कि उन्हें एक नया आसमान मिलेगा, खुल कर बाँहें खोल कर उड़ने का। बिहार की बेटियाँ अपने सपनों में नए रंग घोल पाएंगी, इस फ़ैसले से ऐसी उम्मीद तो की जानी चाहिए। इसलिए बिहार की बेटियाँ जो डॉक्टर-इंजीनियर बनने का सपना पाले हैं, वे खुश हैं।
सरकार की वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाया जा सकता है लेकिन इस तरह के फ़ैसलों से उसकी नीयत पर तो सवाल नहीं ही उठाया जा सकता। नीति आयोग भले बिहार को फिसड्डी राज्य साबित करने में लगा हो लेकिन बिहार सरकार बेटियों को नया आकाश देकर नीति आयोग की मान्यताओं पर विराम भी लगा रही है और सवाल भी उठा रही है।
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